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________________ धर्मकी आधारशिला - आत्मत्व २३ तार्किक - गिरोमणि अकलङ्क स्वामीसे इस विषय मे अत्यन्त विमल प्रकाश प्राप्त होता है। उनका युक्तिवाद इस प्रकार है- "आत्माके विषयमे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानके विषयमे सभी विकल्पो द्वारा आत्माकी सिद्धि होती है । आत्माके विपयमे यदि सन्देह है तो भी आत्माका सद्भाव सिद्ध होता है, क्योकि, सन्देह अवस्तुको विषय नही करता । सराय-ज्ञान उभय कोटिको स्पर्ग किया करता है। आत्माका यदि अभाव हो तो दो विकल्पोंकी ओर झुकनेवाले ज्ञानका उदय कैसे होगा ? अनव्यवसाय - जान भी जात्यन्धको रूपके समान प्रकृतमे बाधक नहीं है, कारण अनादिसे आत्माका परिज्ञान होता आया है। विपरीत ज्ञानके माननेपर भी आत्माका अस्तित्व सिद्ध होता है, पुरुषको देखकर उसमे स्थाणुठठ-रूप विपरीत बोधके द्वारा जैसे स्थाणुकी सिद्धि होती है, उसी प्रकार आत्माका यथार्थ वोध होगा । आत्माके विषयमें समीचीन वोध माननेपर उसका अस्तित्व अबाधित सिद्ध होता ही है ।" ( तत्त्वार्थराजवार्तिक २२८ ) स्वामी समन्तभद्रका युक्तिवाद इस विषयको और भी हृदयग्राही बनाता है - " जैसे हेतु' शब्दसे 'हेतु' रूप अर्थका वोध होता है, क्योकि हेतुगन्द संज्ञारूप है, इसी प्रकार 'जीव' शब्द अपने वाच्य रूप 'आत्मा' नामक वाह्य पदार्थको स्पष्ट करता है, क्योकि 'जीव' शब्द भी सज्ञा रूप हैं । सज्ञारूप वाचकका विषय-भूत वाच्य पदार्थ होना चाहिए। जैसे 'प्रमाण' शब्द प्रत्यक्ष आदि प्रमाण रूप प्रमाणको वताता है, वैसे ही माया आदि भ्रान्तिपूर्ण शब्द अपने-अपने वाच्य भूत माया आदि पदार्थोंका परिज्ञान कराते है।" स्याद्वाद - विद्यापति आचार्य विद्यानन्दिका कथन है- "यह 'जीव' चव्दका व्यवहार आत्मतत्त्वको छोडकर गरीरके विषयमे प्रसिद्ध नही १ " जीवशब्दः सबाह्यार्यः सञ्ज्ञात्वात् हेतुशब्दवत् । मायाविभान्तिसज्ञाश्च मायाद्यैः स्वः प्रमोदितवत् ॥” - प्राप्तमीमांसा श्लो० ८४
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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