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________________ विश्व-निर्माता अपना निषेध करनेवाले व्यक्तिको स्वयं अपना परिचय कराता है। इस प्रकार युक्ति, अनुभव आदि जिस आत्म-तत्त्वको सिद्ध करते है, उसके धर्म आदिकी अभिव्यक्ति करनेमे प्रयत्लगील होना प्रत्येक चिन्तक तथा समीक्षकका परम कर्तव्य है। विश्वनिर्माता आत्मा नामक पदार्थके स्वतन्त्र अस्तित्वके सिद्ध होनेपर चित्तमें यह सहज का उद्भूत होती है, कि आत्मत्व अथवा चैतन्यकी दृष्टिसे जब सव आत्माएँ समान है, तव उनमे दुःख-सुखका तरतम भाव अथवा विविध वृत्तिया क्यो दृष्टिगोचर होती है ? यदि इस समस्याको सुलझानेके लिए लोक-मतका सग्रह किया जाए तो प्राय. यह उत्तर प्राप्त होगा-"जीवोका भाग्य ईश्वरके अधीन है, वही विश्व-नियन्ता उन्हे उत्पन्न करता है, रक्षण करता है तथा अपने अपने कर्मानुसार विविध योनियोमें भेज उन्हे दण्डित या पुरस्कृत करता है।" वेद-व्यास महाभारतमे लिखते है'यह जीव वेचारा अज्ञानी है, अपने दुःख-सुखके विषयमे स्वाधीन नही है, यह तो ईश्वरकी प्रेरणानुसार कभी स्वर्गमे पहुँचता है, तो कभी नरकमें ।' एक ईश्वर-भक्त अपने भाग्य निर्माणके समस्त अधिकार उस परमात्माके हाथमे सौपते हुए लोगोको शिक्षा देता है १ "भावश्चात्र हर्षविषादाद्यनेकाकारविवर्तः प्रत्यात्मवेदनीयः, प्रतिशरीरं भेदात्मकोऽप्रत्याख्यानाहः प्रतिक्षिपन्तमात्मानं प्रतिवोवयतीति कृतं प्रयत्नेन।" -अप्टशती •२ "अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभूमेव वा ॥" -महाभारत वनपर्व ३०१२८
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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