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________________ विश्वसमस्याएँ और जैनधर्म ४२५ 'काम, क्रोध अथवा अज्ञानवश दण्डका अनुचित प्रयोग सर्वत्र विद्वेषके भावोको उत्पन्न करता है ।' स्वतंत्र भारतके शासन-सूत्रधारोको इस अमूल्य सूत्रको हृदयगम करना चाहिए । जहा परस्पर सद्भावना, सहानुभूति, सच्चा प्रेमका निर्झर न बहे, वहा तो एक प्रकारसे नरकका राज्य समझना चाहिए। समाज या राष्ट्रके "भाग्यविधाताका कर्त्तव्य है कि वह जनताकी अधोमुखी वृत्तियोपर नियत्रण रखे और उसमे सद्भावनाओका प्रकाश फैलावे । शासकका कार्य खटमल -की भाति शोषण नही है । उसका कर्त्तव्य मेघमालाके समान अमृतवर्षा करके इस भूतलको सर्वप्रकारसे सपन्न और समृद्ध करनेमे है । आज गोपण नीतिका बोलवाला दिखाई पडता है । शासक गासितोका शोषण करता है, वनी निर्धनीका, मिलमालिक मजदूरोका शोषण करनेमें मग्न है । उन्हें सोचना चाहिए कि इस अल्पस्थायी मनुष्य जीवनमे अधिक धनकी तृष्णा द्वारा हमारा कल्याण नही है, कारण मरनेके बाद कुछ भी साथ नही जाता । अत अपने आश्रितजनोको कमसे कम जीवनकी आवश्यक सामग्री अवश्य प्राप्त कराना चाहिए । सच्चा आनन्द केवल अपना पेट भरनेमे नही है, बल्कि अपने आश्रित सभी लोग सुखी हो, और उन्हें कोई कष्ट नही है, ऐसी स्थिति उत्पन्न करनेमे है। जैनगास्त्रकारोने कहा है, जो गृहस्थ दान नही देता है, उसका घर श्मशान तुल्य है । यदि शक्तित त्याग ( दोन ) का तत्त्व धनिकोके अन्त करणमे प्रतिष्ठित हो जाय, तो अर्थवान् और अर्थविहीनोका सघर्ष दूर होकर मधुर सम्वन्धोकी स्थापना हो सकती है । इस जीवनसग्राममे सदा अपराजित जीवन रहे, इसलिए योग्य गृहस्थ उन वीरोकी कुछ समय तक एक चित्त हो, वदना तथा गुणानुचिंतन करता है, जिनने भौतिक दुर्बलताओपर विजय प्राप्त की है, साथ ही काम, क्रोव, लोभ, मान, मोहादि रिपुओको भी पराजित किया है। इस आदर्गकी आराधनासे आत्मा व्यामुग्ध नही बनता है । दान देने से सहानुभूति तथा सहयोगका सच्चा भाव सजग रह समाजको मगलमय
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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