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________________ ४२६ जैनशासन बनाता है। तीन रवार्थभावना पतनकी ओर प्रेरणा करती है । हृदयमे यदि प्राणीमात्रके प्रति "समता सर्वभूतेषु" की भावना प्रतिष्ठित हो जाय, तो आन्तरिक साम्यकी अवस्थितिमे बलपूर्वक स्थापित किए गए कृत्रिम साम्यवादकी ओर कौन झुकेगा? आजके युगमे सहयोग, परस्पर सहायता, सहानुभूति, ऐक्य, उदारता, प्रेम, प्रामाणिकता, सतोष, स्पष्टवादिता, निर्भीकता, स्वस्त्रीसन्तोष, सयम सदृश सद्गुणोकी यदि अभिवृद्धि हो जाय, तो विश्वमे बहुतसे विषमता तथा विषाद उत्पन्न करनेवाले विवादोका अवसान हुए विना न रहे। राज्य शासनकी कोई भी पद्धति हो, उसके भीतर यदि पूर्वोक्त प्रवृत्तिका पोषण होता है, तो वह श्रेष्ठ है। शासन पद्धति साध्य नही, साधन है। साध्य है शान्ति, समृद्धि तथा मनुष्य जीवनकी सफलता। उन्नतिके लिए विविध धर्मग्रन्थ अहिंसा, सत्य, शील आदिका उल्लेख करते है, किन्तु वे यह स्पष्टतया नही बताते, कि इन सिद्धान्तोका सम्यक् परिपालन किस प्रकार सभव है? हजरत मसीहके प्रेमका अर्थ बराबर समझमे नहीं आता, जब वे मनुष्यको तो यह कहते है कि अगर कोई तुम्हारे एक गालपर चपत मारे, तो तुम अपना दूसरा गाल उसके समक्ष कर दो, किन्तु वे स्वय जीवित मछलियोको अपने भक्तोको खिलाते हुए यह नही सोचते, कि इन हतभाग्य जीवधारियोको मारे जानेमे प्राणान्त व्यथा होगी। ब्रह्मचर्य और शीलकी महत्ताका एक बार सीतादेवीके चरित्रमे दर्शन करनेके उपरान्त जब हमे पाण्डवोके चरित्रमे द्रौपदीको पचभर्तारीके रूपमे सती बताया जाता है, तब हमे पातिव्रत्य धर्मका अविरोधी स्वरूप हृदयगम करनेमे काठिन्यका अनुभव होता है। ऐसी ही कठिनतापूर्ण सदाचारकी विभिन्न प्रवृत्तिया समक्ष आती है। जैनशासनका सुव्यवस्थित वर्णन ऐसे सकटोसे परे है। उसमे इस बातका पूर्णतया स्पष्ट विवेचन किया गया है, कि अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह वृत्तिका पोषण करनेकी चर्या किस प्रकार है और किस प्रकारकी प्रवृत्तिसे इसका विनाश होता है। गृहस्थ अवस्थामे
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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