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________________ ४२४ जैनशासन लिए प्रसिद्ध रह आया है, जहा झूठ, चोरी आदि वडे पातक माने जाते है, जहा सत्यके पीछे जीवनभर सकटका सहर्ष स्वागत करनेको लोग तैयार रहते थे, वहा ही भारतीय जीवनमे मर्यादातीत अप्रामाणिकताका प्रवेश हो गया । यह अग्रेजोकी स्वशासनकालीन कूटनीतिका परिणाम है | न्यायालयकी विशेप पद्धतिके द्वारा सारे राष्ट्रमे वेईमानी, छल, प्रपच करनेकी प्रकारान्तरसे शिक्षा प्रदान की गई थी । अर्थ-प्रदानके द्वारा अनर्थं का पोपण हुआ । विविध भातिकी अनैतिकताका विषवृक्ष सफल हो अपने कटुफल देने लगा, यह कूटनीतिका मोहक सस्करण ही है । किसी राष्ट्रको दीन हीन दुखी बना गोपणनीति द्वारा विषय - विलासितामे मग्न होने वालो को यह सूत्र प्रकाश प्रदान करता है, कि दूसरोको दुखी करनेसे, शोकाकुल करनेसे तथा उनके प्राणघात आदिसे यह जीव अपने लिए विपत्तिका वीज बोता है “दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयत्थानान्यसद्वेद्यस्य । " - त० सू० ६, ११ । आज महायुद्धके पर्यवसान होनेपर पराजित राष्ट्रोके प्रति अमानुषिक व्यवहार होने लगा और ऐसा प्रयत्न किया जा रहा है, कि वे बहुत समय तक अपना मस्तक गौरवपूर्वक न उठा सके । शासक और शासितोके कल्याणका उपाय इसमे नही है, कि परस्परमे विद्वेषाग्निसदा प्रज्वलित रहे । मनुष्यताकी पुकार तो यह है, कि उनके साथ मानवोचित व्यवहार हो और उनकी आत्माको सद्गुणोकी ओर प्रगति करनेमे न केवल स्वतंत्रता हो, वल्कि प्रेरणा और सहायता भी हो । दुष्टतापूर्ण वृत्तिका प्रदर्शन करनेपर तो दण्डका प्रहार आवश्यक है । उसका ध्येय दुष्टताका विनाश हो, न कि व्यक्तिका उन्मूलन कार्य सोमदेव सूरि दण्डके प्रयोगके विषयमे एक बातसे सतर्क करते है कि यदि दण्ड प्रयोगमें विवेकसे काम न लिया, तो लाभके स्थान अलाभ होगा । "दुष्प्रणीतो हि दण्डः कामक्रोधाभ्यामज्ञानाद्वा सर्वविद्वेषं करोति ।। ६।१०४ ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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