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________________ विश्वसमस्याएँ और जैनधर्म ४२३ होता है, कि आज पाप - पकमे निमग्न प्राणी अपनी अमर आत्माको नीच पर्यायमे ले जाता है, जहा दुख ही दुख है । आज जो वर्गकी श्रेष्ठता, (Race-Superiority) अथवा रंगभेद ( Colour Distinction ) की ओटमे अभिमान और घृणाके बीज दिखते है, उसका फल सूत्रकार बताते है - “परात्मनिन्दाप्रशसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ॥” - त० सू० ६।२५ दूसरेकी निन्दा, अपनी प्रशसा करना, दूसरेके विद्यमान गुणोको ढाकना और अपने झूठे गुणोका प्रकट करना इन कार्योंके द्वारा यह जीव निन्दनीय तथा तिरस्कारपूर्ण अवस्थाको प्राप्त करता है । आज जो अनेक राष्ट्रोम घृणा, जातिगत अहंकार आदि विकार समा गए है वे उन राष्ट्रोका इतना भीषण विनाश करेगे, जितना लाखो अणुबमका प्रयोग भी नही करेगा । आत्मगत दोषोके द्वारा जीव इतने गहरे पतनके गर्तमे गिरता है, कि जहासे विकासका मार्ग ही गणनातीत कालके लिए रुक जाता है । सत्ताधीश सफलताके मद मस्त हो आश्रित व्यक्तियो और देशोको अपने मनके अनुसार नचाता है, उन्हें कप्ट पहुँचाता है । उनका चिरस्थायी नैतिक पतन हो, इस उद्देश्यसे वह उन्हें पापपूर्ण व्यसनोमे फँसाता है और कहता हूँ कि हम क्या करे, इनने स्वय पापोको आमंत्रित किया है। ऐसे धूर्तोके चरित्रपर सोमदेवसूरि प्रकाश डालते हुए कहते है - " स्वव्यसनतर्पणाय धूतैर्दुरोहितवृत्तयः क्रियन्ते श्रीमन्तः ॥” -नी० वा० ३८, २० 'धूर्त लोग अपनी आपत्तिके निवारणार्थ श्रीमानोको पापमार्गमे आसक्त कराते है ।' पुरातन भारत और अग्रेजी भारतके चित्रोके सन्तुलनसे पता चल सकता है कि धूर्त लोग किस प्रकार स्वार्थपुष्टिनिमित्त महान् नैतिक राष्ट्रको कुमार्गरत करते है । जो देश अपने प्रामाणिक व्यवहारके
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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