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________________ ४०० जैनशासन यदि सदोष दृष्टिवश विषय त्यागने योग्य है, तब उनको ग्रहण करनेमे क्या प्रयोजन है ? कीचड़मे अपने अगको डालकर धोनेकी अपेक्षा उस पकको न छूना ही सुन्दर है। ' जिस विनयकी ओर आज लोगोका उचित ध्यान नहीं है, उस विनयकी गुरुताको आचार्य श्री इन शब्दो द्वारा प्रकाशित करते है "विणएण विप्पहीणस्स, हवदि सिक्खा निरस्थिया सव्वा । विणो सिक्खाफलं, विणयफलं सव्वकल्लाणं ॥" -मूलाचार पृ० ३०४। -विनय विहीन व्यक्तिकी सपूर्ण शिक्षा निरर्थक है। शिक्षाका फल विनय है और विनयका फल सर्वकल्याण है। शील धारणकी ओर उत्साहित करते हुए वे कहते है "सीलणवि मरिदव्वं णिस्सीलेणवि अवस्स मरिदव्वं । जइ दोहिवि मरियवं वरं हु सीलत्तणेण मरियव्वं ॥५॥६॥" शीलका पालन करते हुए मृत्यु होती है, और शील शून्य होते हुए भी अवश्य मरना पडता है । जब दोनो अवस्थाओमे मृत्यु अवश्यभाविनी है, तब शील सहित मृत्यु अच्छी है। निवृत्तिके समुन्नत शैलपर पहुचनेमे असमर्थ व्यक्ति किस प्रकार प्रवृत्ति करे, जिससे वह पापपकसे लिप्त नहीं होता है, इसपर जैन गुरु इन शब्दोमे प्रकाश डालते है "जदं चरे जदं चिट्ठ जदमासे जदंसये । जदं भुजेज्ज भासेज्ज, एवं पावं ण वज्झइ ॥" सावधानीपूर्वक चलो, सावधानी पूर्वक चेष्टा करो, सावधानी पूर्वक बैठो, सावधानीपूर्वक शयन करो, सावधानी पूर्वक भोजन करो, सावधानी . पूर्वक भाषण करो, इस प्रकार पापका बन्ध नहीं होता।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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