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________________ पुण्यानुबन्धी वाड्मय ३६६ है जो रचनाकारके भाषापर अप्रतिम अधिकारको सूचित करता है। एक जैन आचार्यने चित्रालकारका उदाहरण देते हुए एक पद्य बनाया है, जिसका मर्म बड़े वडे पाडित्यके अभिमानी अवतक न जान सके। वह पद्य यह है "का ख गो घ ड चच्छौ जो झ टाठडढणतु । था दधन्य प फ ब भा मा या राला व श ष सः ॥" वौद्ध धर्मका मूल सिद्धान्त 'सर्वं क्षणिकम्' है, जैन धर्मने पर्याय दृष्टिसे पदार्थको क्षणिक माना है, इस क्षणिकताका आचार्य पद्मनंदिने शरीरको लक्ष्यकर कितना वास्तविक तथा सजीव वर्णन किया है "कत्र दिने न भुक्तिरथवा निद्रा न रात्रौ भवेत्, विद्रात्यम्बुजपत्रवद्दहनतोऽभ्याशस्थितात् यद्ध्रुवम् । अस्त्रव्याधिजलादितोऽपि सहसा यच्च क्षयं गच्छति भ्रात का शरीर स्थितिमतिर्नाशेऽस्य को विस्मयः ।। " अरे भाई | यदि एक दिन भी भोजन नही प्राप्त होता है, अथवा रात्रिको नीद नही आती है तो यह शरीर अग्नि समीपमे कमलपत्रके समान मुरझा जाता है, अस्त्र, रोग, जल आदि के द्वारा जो सहसा विनाशको प्राप्त होता है, ऐसे शरीरमें स्थिरताकी बुद्धि कैसी ? इसके नाश होने पर भला क्या आश्चर्यकी बात है ? भगवान् पार्श्वनाथके पिता महाराज विश्वसेनने उनसे गृहस्थाश्रममे प्रवेश करने को कहा, उस समय उनके चित्तमे सच्चे स्वाधीन बनने की पिपासा प्रवल हो उठी और उनने अपने को इद्रियो तथा विषयोका दास बनाना अपनी दुर्बलता समझी, अत उन्होने निर्वाणके लिये कारण रूप जिनेन्द्रमुद्रा धारण की । वारिदाज सूरिने पार्श्वनाथचरित्रमे भगवान्के मनोभावोको इस प्रकार चित्रित किया है "दोषदृष्ट्या यदि त्याज्यो विषयस्तद्ग्रहेण किम् ? दूरादस्पर्शनं वरम् ॥ १३ - ११ ॥” प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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