SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 437
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्यानुबन्धी वाड्मय ४०१ वस्तुत. यह लोग सोचा करते हैं, राज्य विद्यामे ही नैपुण्य प्राप्त करना श्रेयस्कर है, धर्म विद्यामे श्रम करना विशेष उपयोगी वात नहीं है। महान् भ्रम है। भगवज्जिनसेन सदृग आचार्य कहते हैं“राजविद्यापरिज्ञानादैहिकेऽर्ये दृढा मतिः । धर्मशास्त्र परिज्ञानान्मतिलोकट्टयाश्रिता ।। ४२-२८ ॥" राजविद्याके परिज्ञानसे इस लोकके पदार्थोके विपयमे बुद्धि मजबूत होती है, किन्तु धर्मशास्त्र के परिजानसे इस लोक तथा परलोकके सम्बन्ध दृढ वृद्धि होती है। मे मूलाचारमे कितनी उज्ज्वल भावना व्यक्त की गई है"जा गदी अरिहंताणं णिट्टिट्ठाणं च जा गदी । जा गदी वोदमोहाणं सा मे भवदु सत्सदा ॥ eell" अरहतोकी जो गति है, निष्ठितार्थी सिद्धोकी जो अवस्था है तथा वीतमोह आत्माओकी जो स्थिति है, वह मुझे सर्वदा प्राप्त हो । जैन गासन में आचार्यका पद महान् साधनाके उपरान्त प्राप्त होता है; सदाचरण उसकी नीव रहती है। श्री वीरसेन स्वामीका यह पद्य कितना भावपूर्ण है "तिरयण-खग्ग-बिहाए - णुत्तारिय मोह सेण सिर- णिवहो । श्राइरिय-राय पसियड परिपालिय- भविय-जिय-लोश्रो ॥" वे आचार्य महाराज प्रसन्न हो, जिनने आत्म दर्शन, आत्मबोध और आत्म निमग्नता रूप रत्नत्रय स्वरूप तलवारके प्रहारने मोह सैन्यके नस्तक समूहका सहार किया है तथा भव्य जीवोकी परिपालना की है। 'तत्त्वज्ञान तरगिणी' मे लिखा है कि शुद्धचिद्रूप अर्थात् अपनी निर्मल आत्माके स्मरण करनेमें धनव्यय, देशाटन, दासता, भय, पीडा आदि कष्टों का पूर्ण अभाव है, फिर भी आश्चर्य है कि विन वर्ग उस जोर क्यों नही ध्यान देते ? उनके ये शब्द कितने मर्मस्पर्धी है २६
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy