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________________ पुण्यानुवन्धी वाड्मय ३६१ समन्तभद्र (सम्यग्दृष्टि) हो जायगा। 'अभद्र भी समन्तभद्र होगा' यदि वह समदृष्टि तथा उपपत्ति चक्षु-विचारक दृष्टि सपन्न हुआ। कितने युक्ति, प्राण तथा सत्यसमर्थित शब्द है। "कामं द्विषन्नप्युपपत्तिचक्षुः समीक्षता ते समदृष्टिरिप्टम् । त्वयि ५ वं खण्डितमान,गो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ॥" -युक्त्यनुशासन ६३। 'प्रचेतस' नामक दिगम्बर मुनिराजकी महिमाको महाकवि हरिचन्द्र कितनी विलक्षण एव विचक्षण-प्रिय पद्धतिसे प्रकाशित करते हुए कहते "युष्मत्पदप्रयोगेण पुरुषः स्याद्यदुत्तमः । अर्थोऽयं सर्वथा नाथ लक्षणस्याप्यगोचरः॥" -ध० शर्मा० ॥ ५३॥ युष्मत्-'पद'-आपके चरणारविन्दके प्रसादसे 'पुरुष उत्तम' हो जाता है। युष्मत् ‘पदके' प्रयोगसे 'उत्तम पुरुष' बनानेकी विशेषता आपमे है। यह वात व्याकरण शास्त्रकी परिधिके भी वाह्य है । व्याकरण शास्त्र तो 'युष्मत् पदके' प्रयोगसे मध्यम पुरुपको बताता है। यहा कविने 'युष्मत् पद' और 'पुरुष स्याद्यदुत्तम' शब्दो द्वारा रचनामे एक नवीन जीवन डाल दिया। प्राय सभी विद्वान् विधाताको इसलिये उलाहना देते है, कि उसने खलराजके निर्माण करनेकी अज्ञ-चेष्टा क्यो की? महाकवि हरिचन्द्र विधाताके अपवादको अपनी कल्पना-चातुरी द्वारा निवारण करते है। वे कहते है कि विधाताको विशेष प्रयत्न द्वारा खल जगत्का निर्माण करना पडा। इससे सत्पुरुषोका महान् उपकार हुआ। वताओ सूर्यकी महिमा अन्धकारके अभावमे और मणिकी विशेषता काचके असद्भावमे क्या प्रकाशित होती? कवि कहते ह
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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