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________________ ३९० जैनशासन भगवान् शान्तिनाथ का स्तवन करते हुए कविकुलचूडामणि स्वामी समन्तभद्र शान्तिका लाभ कर गान्तिके नाथ बनने का मार्ग बताते है"स्वदोषशान्त्या विहितात्मशान्तिः शान्तेविधाता शरणं गतानाम् । भूयाद् भवक्लेशभयोपशान्त्यै शान्तिजिनो मे भगवान् शरण्यः॥" -वृ० स्वयंभू ८० । ___ "वे गान्तिनाथ भगवान् मेरे लिये शरण है, जिनने अपनी आत्मामे विद्यमान दोषोका ध्वस करके आत्म-शान्ति प्राप्त की है, जो शरणमें आने वाले जीवोको शान्ति प्रदान करते है। वे शान्तिनाथ भगवान् ससार के सकट तथा भीतिकी उपगान्ति करें।" ____कितनी सुन्दर वात आचार्य महाराजने वताई है, कि यथार्थ शान्ति की उद्भूति आत्मनिर्मलता द्वारा प्राप्तव्य है। वह गान्ति बाहरी वस्तु नही है। प्रकाण्ड तार्किक होते हुए भी स्वामी समन्तभद्रकी कवितामे मधुरता तथा सरसताका अपूर्व सम्मिश्रण पाया जाता है। महाकवि हरिचन्द अपने धर्मशर्माभ्युदयमे लिखते है "वाणी भवेत् कस्यचिदेव पुण्यः शब्दार्थसन्दर्भविशेषगर्भा । इन्दु विनाऽन्यस्य न दृश्यते द्युत् तमोधुनाना च सुधाधुनी च ॥ १,१६ गब्द तथा भावकी रचनाविशेषसे समन्वित वाणी पुण्योदयसे किसी विरले भाग्यशाली पुण्यात्माको प्राप्त होती है। अन्धेरेको दूर करने वाली तथा अमृतके निर्झरसे समन्वित (शीतल तथा शान्ति प्रदान करने वाली) ज्योति चद्रके सिवाय अन्यत्र नहीं पाई जाती। ___ भगवान् महावीरकी तर्कगली से अभिवन्दना करते हुए स्वामी समन्तभद्र कहते है-'भगवन् । आपके शासनके प्रति तीव्र विद्वेष भाव वारण करने वाला भी यदि विचारक दृष्टि तथा मध्यस्थ भाव सपन्न हो आपके शासनकी परीक्षा करे, तो उसके एकान्त पक्ष-अभिनिवेशरुप सीग खण्डित हो जावेंगे अर्थात् वह एकान्त पक्षका अभिमान छोड़ेगा और वह अभद्र (मिथ्यात्वी) होते हुए भी आपके शासनका श्रद्धालु हो
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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