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________________ जैनशासन "खलं विधात्रा सृजता प्रयत्नात् किं सज्जनस्योपकृतं न तेन । ऋते तमांसि धुमणिर्मणिर्वा विना न काचैः स्वगुणं व्यनक्ति ॥" - ध० श० १, २२ 1 दुनिया कहती है 'खल' का कोई उपयोग नही होता, किन्तु महाकवि 'खल' शब्दके विशिष्ट अर्थ पर दृष्टि डालते हुए उसे महोपयोगी कहते है . ३६२ ! 1 "अहो खलस्यापि महोपयोगः स्नेहगुहो यत्परिशीलनेन । श्राकर्णमापूरितमात्रमेताः क्षीरं क्षरन्त्यक्षतमेव गावः ॥" J - ध० श० १, २६ आश्चर्य है, खलका (खलीका) महान् उपयोग होता है । खल स्नेहद्रोही- प्रेम रहित ( खली स्नेह - तेल रहित होती) होता है । इस. खल - ( खली) का प्रसाद है, जो गाए पूर्णपात्र पर्यन्त लगातार क्षीररस प्रदान करती है । कविने 'खलमे' दुर्जनके सिवाय खलीका अर्थं सोचकर कितनी सत्य और सुन्दर बात रच डाली । इस प्रकारका विचित्र जादू हरिचन्द्रकी रचनामे पद पदपर परिदृश्यमान होता है । बुढापेमें कमर झुक जाती है, कमजोरी के कारण वृद्ध पुरुष लाठी लेकर चलता है । इस विषय मे कविकी उत्प्रेक्षा कितनी लोकोत्तर है, यह सहृदय सहज ही अनुभव कर सकते है - “असम्भृतं मण्डनमङ्गपष्टेर्नष्टं क्व मे यौवनरत्नमेतत् । इतीव वृद्धो नतपूर्वकायः पश्यन्नधोऽधो भुवि बम्भूमीति ॥ " - धर्मशर्माभ्युदय ५६ । ४ । मेरे शरीरका स्वाभाविक आभूषण यौवनरत्न कहा खो गया इसीलिये ही मानो आगे से झुके हुए शरीर वाला वृद्ध नीचे नीचे पृथ्वीको देखता हुआ चलता है। तार्किक पुरुष जब काव्य-निर्माणमे प्रवृत्ति करते है तब किन्ही बिरलो को मनोहारिणी, स्निग्ध रचना करनेका सौभाग्य होता है । स्वामी
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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