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________________ २७४ जनशासन अवर्णनीय उपद्रव आरम्भ करा दिया। उसने सोचा था, इस यज्ञकी ओटमे मै सपूर्ण मुनिसघको स्वाहा करके सदाके लिये निश्चिन्त हो जाऊँगा। इधर यह पैशाचिक जघन्य लीला हो रही थी, उधर मिथिलामे एक महान् योगी मुनिराजने अपने दिव्य ज्ञान से आकाशमें श्रवण नक्षत्रको कपित देख हस्तिनागपुरमे मुनिसघके महान् उपसर्गको जानकर बहुत दु ख प्रकट किया। उनके समीपवर्ती पुष्पदन्त क्षुल्लकने सर्व वृत्तान्त ज्ञात कर यह जाना कि विक्रिया ऋद्धि नामक महान् योगशक्तिको धारण करनेवाले महामुनि विष्णुकुमारजीके प्रयत्नसे ही यह सकट टल सकता है, अन्यथा नही। पुष्पदन्त क्षुल्लकने विष्णुकुमार मुनिराजके पास जाकर सपूर्ण वृत्तान्त सुनाया। विपत्ति-निवारणनिमित्त आध्यात्मिक सिद्धियोका उपयोग करते हुए वे अपने भाई पद्मरायके राज्यमे पहुचे, जहा बलिने नरबलिका पाखण्ड फैलाया था। पद्मरायको डाटते हुए उनने कहा,"पद्मराय, किमारब्धं भवता राज्यवर्तिना"-तुमने यह क्या कार्य मचा रखा है। पद्मरायने अपनी असमर्थता बताते हुए निवेदन किया कि एक सप्ताह पर्यन्त राज्य पर मेरा कोई भी अधिकार नहीं है। इस प्रसग पर हरिवंश-पुराणकार कहते है "पद्मस्ततो नतः प्राह नाथ, राज्यं मया बलेः। सप्ताहावधिकं दत्तं नाधिकारोऽधुनात्र मे॥"-२०, ४०। विष्णुकुमार मुनिराजने यज्ञ और दान देनेमे तत्पर बलिको देख अपने लिये केवल तीन पाव भूमि मागी। स्वीकृति प्राप्त कर विक्रिया ऋद्धिके प्रभावसे विष्णुकुमारने अपने दो पावो को मेरु तथा मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त विस्तृत करके तीसरे पैरके योग्य भूमि मागी। यह लोकोत्तर प्रभाव देखकर बलि घबडाया। उसने क्षमा मागी और उपसर्ग १ हरिवंशपुराण सर्ग २०, श्लोक ३२।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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