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________________ साधक के पर्व साधकके जीवन-निर्माणमे पर्व तथा उत्सवोका महत्त्वपूर्ण स्थान है। जिस प्रकार तीर्थयात्रा, तीर्थस्मरण आदिसे साधक की आत्मा निर्मल होती है, उसी प्रकार आत्मप्रबोधक पर्वोके द्वारा जीवनमे पवित्रताका अवतरण होता है। कालविशेष आनेपर हमारी स्मृति अतीतके साथ ऐक्य धारण कर महत्त्वपूर्ण घटनाओको पुन जागृत कर देती है। अतीत नैगमनय भूतकालीन घटनाओमे वर्तमानका आरोप करता है। यद्यपि भगवान् महावीर प्रभुको निर्वाण प्राप्त हुए सन् १९४६में २४७५ वर्ष व्यतीत हो गए, किन्तु दीपावलीके समय उस कालभेदको भूलकर ससार कह बैठता है"अद्य दीपोत्सवदिने वर्द्धमानस्वामी मोक्षं गतः।" -पालापपद्धति पृ० १६६ । ___ इस प्रकारकी मधुर स्मृतिके द्वारा साधक उस स्वर्णकालसे क्षणभर को ऐक्य स्थापित कर सात्त्विक भावनाओ को प्रबुद्ध करता है। पर्व और त्यौहार नामसे ऐसे बहुतसे उत्सवके दिवस आते है, जब कि अप्रबुद्ध लोग जीवनको रागद्वेषादिकी वृद्धि द्वारा मलिन बनानेका प्रयत्न किया करते है। आश्विनमासमें दुर्गापूजाके नामपर बहुतसे व्यक्ति पशुबलि द्वारा अपनेको कृतार्थ समझते है। ऐसे पर्व या उत्सवसे साधकको सतर्कतापूर्वक आत्मरक्षा करनी चाहिये, जिनसे आत्मसाधनाका मार्ग अवरुद्ध होता है। जिन पर्वोसे सात्त्विक विचारोको प्रेरणा प्राप्त होती है उनको ही सोत्साह मनाना चाहिये। तिलोयपण्णत्तिमे बताया है कि जिस कालमें जीव कैवल्य, दीक्षा १ "नास्ति काले केवलणाणादिमंगलं परिणमति ॥ १-२४॥" "परिणिक्कमणं केवलणाणुब्भवणिन्वुदिप्पवेसादी। पावमलगालणादो पप्णत्तो कालमगलं एदं ॥ १-२५॥"
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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