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________________ २६८ जैनशासन जैनशास्त्रोके परिशीलनसे स्पष्ट विदित होता है, कि किस महापुरुषने कब और किस स्थलसे आत्मस्वातत्र्य-मुक्ति प्राप्त की। आज तक यह स्थल परम्परासे पूजा भी जाता है। निर्वाणभूमिपर मुक्त होनेवाले आत्माके चरणोके चिह्न बने रहते है, उनको ही आराधक प्रणाम कर मुक्त आत्माओकी पुण्यस्मृति द्वारा अपने जीवनको आलोकित करता है। इन प्रमाणोके आधारपर विद्यावारिधि वैरिस्टर श्री चम्पतरायजी यह निष्कर्ष निकालते है कि-'यथार्थमे जैनधर्मके अवलम्बनसे निर्वाण प्राप्त होता है । यदि अन्य साधनाके मार्गोसे निर्वाण मिलता, तो मुक्त आत्माओ के विषयमे भी स्थान, नाम, समय आदिका प्रमाण उपस्थित करते।' वे लिखते है-"No other religion is in a position to furnish a list of men, who have attained to Godhood by following its teachings." -Change of Heart P. 21. मुमुक्षके लिये भैया भगवतीदासजी कहते है"तीन लोकके तीरथ जहां, नित प्रति बदन कीजै तहां। मन-वच-काय सहित सिर नाय, वदन कहि भविक गुण गाय ॥" कौन साधक मुक्तिकी उज्ज्वल भावनाके प्रबोधक पुण्य तीर्थोकी अभिवन्दना द्वारा अपने जीवनको आलोकित न करेगा।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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