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________________ आत्मजागृतिके साधन-तीर्थस्थल २५७ लिखा है-एक विशाल पाषाणको काटकर मूर्ति बनाई गई है। अज्ञात शिल्पीके हाथसे उस पाषाणके रूक्षस्तरमेंसे शान्त और दिव्य स्मित अकित साधुकी मनोज्ञ मूर्ति निर्मित हुई। इस महान् कार्यमे कितना श्रम लगा होगा, यह बात दर्शकको आश्चर्यमें डाल देगी और वह इस बातको जाननेकी उलझनमे फँस जाएगा कि क्या यह मूर्ति इस पर्वतकी रही है अथवा वह जहा अभी अवस्थित है, वहा बाहरसे लाई गई है। नहीं कह सकते कि, चट्टान वहा उपलब्ध हुई अथवा लाई गई। फरग्यूसन नामक विख्यात शिल्प-शास्त्रीका कथन है-"इजिप्तके बाहर कही भी इतनी विशाल और भव्य मूर्ति नहीं है। वहा भी ऐसी कोई मूर्ति ज्ञात नहीं है जो इस मूर्तिके द्वारा प्रदर्शित परिपूर्ण कला तथा ऊँचाईमें आगे बढ सके।" कहा जाता है कि गगनरेशके पराक्रमी मन्त्री गोम्मटराय-चामुण्डरायके निमित्तसे उनके ईश्वर-गोम्मटेश्वरकी मूर्तिका निर्माण हुआ था। किन्तु जनश्रुति और परम्परागत कथानकसे इस मूर्तिका निर्माण इतिहासातीत कालका बताया जाता है। जिन वाहुबली स्वामीकी यह मूर्ति है, वे चक्रवर्ती सम्राट् भरतके अनुज और भगवान् ऋषभदेवके प्रतापी पुत्र थे। पोदनपुरका वे शासन करते थे। उन्होने चक्रवर्ती भरतको भी पराजित किया था। किन्तु भरतके जीवनमे राज्यके प्रति अधिक ममत्त्व देख और विषयभोगोकी निस्सारताको सोच उन्होने दिगम्बरमुद्रा धारण की। विजेता बाहुबलि अपने अन्त करणमे क्या सोचते थे, इसका सुन्दर चित्र अकित करते हुए महाकवि जिनसेन कहते है। १ "प्रेयसीय तवैवास्तु राज्यश्रीर्या त्वयादृता। नोचितैषा ममायुष्मन् बन्धो न हि सता मुदे ॥ १७ ॥" "विषकण्टकजालीव त्याज्यैषा सर्वथापि नः। निष्कण्टकां तपोलक्ष्मी स्वाधीना कर्तुमिच्छताम् ॥६६॥" -महापुराण पर्व, ३६
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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