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________________ २५८ जैनशासन हे आयुष्मन् भरत। यह लक्ष्मी मेरे योग्य नही है, कारण इसका तुमने अत्यन्त समादर किया, यह तो तुम्हारी प्रिय पत्नीके तुल्य है । बधन की सामग्री सत्पुरुषोको आनन्दप्रद नही होती । यह तो मुझे विष कटक समूह समन्वित प्रतीत होती है, अत: यह पूर्णतया त्याज्य है । में तो निप्कटक तप श्रीको अपने अधीन करनेकी आकाक्षा करता हूँ ।" I उनकी मूर्तिमे भी उनका लोकोत्तर चरित्र और विश्वविजेतापन पूर्णतया अकित प्रतीत होता है । यही कारण है कि बडे-बडे राजा महाराजा तथा देश-विदेश के प्रमुख पुरुष प्रभुकी प्रतिमाके पास आकर अपनी श्रद्धाञ्जलिया अर्पित करते हैं । मूर्ति बाहुबलीकी महान् तपश्चर्या अकित की गई है। वे एक वर्ष पर्यन्त खड्गासनसे तपश्चर्या करते रहे, इसलिए लता, सर्प आदिने उनके प्रति स्नेह दिखाया । मूर्ति मे भी माधवी लता और सर्पका सद्भाव इस बातको ज्ञापित करते हुए प्रतीत होते है कि महा मानव बाहुबली विश्व-बन्धु हो गए है । इसलिए हरएक प्राणी उनके प्रति आत्मीय भाव धारण कर अपना स्नेह व्यक्त करता है । मूर्तिके दर्शनसे आत्मामे यह बात अ हुए बिना नही रहती कि अभय और कल्याणका सच्चा और अद्वितीय मार्ग सम्पूर्ण परिग्रहका परित्याग कर बाहुबली स्वामीकी मुद्राको अपनाने मे है । विपत्तिका मार्ग भोग, परिग्रह, हिंसा तथा विषयासक्ति है और कल्याणका प्रशस्त पथ अन्त. वाह्य - अपरिग्रह, अहिंसा और आत्मनिमग्नताकी ओर अपने जीवनको प्रेरित करनेमे है । लेखनीकी और वाणीकी भी सामर्थ्य नही है कि मूर्तिके पूर्ण प्रभाव और सौदर्यका वर्णन कर सके। दर्शनजनित आनन्द वाणीके परे है। देशरत्न वावू राजेन्द्रप्रसादजीने उस दिन गोम्मटेश्वर के दर्शनका उल्लेख करते हुए हमसे मूर्तिके विषयमे यह सूत्र वाक्य कहा था कि -- "मूर्ति अद्भुत है । " निर्वाणभूमि होनेके कारण पटना, सिद्धवरकूट ( होल्कर स्टेट)
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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