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________________ २२६ जनशासन कर्म-रूपी चितेरा इस जीवको भले-बुरे, दुबले-पतले, मोटे-ताजे, लूले-लँगडे, कुवडे, सुन्दर अथवा सड़े-गले शरीरमे स्थान दिया करता है। इस जीवकी अगणित आकृतियो और विविध प्रकारके शरीरोका निर्माण नामकर्मकी कृति है। विश्वकी विचित्रतामे नाम-कर्मरूपी चितेरेकी कला अभिव्यक्त होती है। शुभ नाम-कर्मके प्रभावसे मनोज्ञ और सातिशय अनुपम गरीरका लाभ होता है। अशुभ नाम-कर्मके कारण निन्दनीय असुहावनी शारीरिक सामग्री उपलब्ध होती है। जो लोग जगत्का निर्माता किसी विधाता या स्रष्टाको बताते है, यथार्थमें वह इस नामकर्मके सिवाय और कोई दूसरी वस्तु नही है। आचार्य भगवज्जिनसेनने 'इस नाम कर्मको ही वास्तविक ब्रह्मा, स्रष्टा अथवा विधाता कहा है। एकेन्द्रियसे लेकर पचेन्द्रिय पर्यन्त चौरासी लाख योनियोमे जो जीवोकी अनन्त आकृतिया है उसका निर्माता यह नाम-कर्म है। इस नाम-कर्मके द्वारा बनाए गए छोटेसे-छोटे और बडेसे वडे शरीरमे यह जीव अपने प्रदेशोको सकुचित अथवा विस्तृत कर रह जाता है । शरीर के बाहर आत्मा नहीं रहता। और न शरीरके एक अश मात्रमे ही जीव रहता है । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने लिखा है "अणुगुरु-देहपमाणो उवसंहारम्पसप्पदो चेदा। असमुहदो ववहारा णिच्चयणयदो असखदेसो वा॥१०॥" -द्रव्यसंग्रह “जीव व्यवहारसे अपने प्रदेशोके सकोच अथवा विस्तारके कारण छोटे, वडे शरीर, समुद्धात अवस्थाको छोडकर, होता है। निश्चय नयसे यह जीव असख्यातप्रदेशी है।" १ "विधिः स्रष्टा विधाता च देवं कर्म पुराकृतम् । ईश्वरश्चेति पर्याया विज्ञेयाः कर्मवेघसः॥ -महापुराण ३७।४।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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