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________________ कर्मसिद्धान्त २२५ इस जीवकी मनुष्य, पशु-पक्षी आदि योनियोमे नियत काल पर्यन्त अवस्थिति होती है। काल-मर्यादापूर्ण होनेपर जीव क्षण-भर भी उस शरीरमे नही रहता। इस आयु-कर्मके कारण ही यह जीव जन्म-मरणका खेल खेला करता है। इस रहस्यको न जानकर लोग जीवनको ईश्वरकी दया और मृत्युको परमात्माकी इच्छा कह दिया करते है। किन्तु परमात्माके साथ जगत् भरके प्राणियोके जीवन तथा मरणका अकारण सम्बन्ध जोडना उस सच्चिदानन्दको सकटोके सिन्धुमें समा देने जैसी बात होगी। यथार्थमे यह आयु कर्म है जिसके अनुसार यह जीवनकी घडी जब तक चाभी भरी रहती है चलती है। विष, वेदना, भय, शस्त्रप्रहार, सक्लेश आदिके कारण यह घडी पहिले भी बिगड सकती है। इसीका परिणाम अकाल-मरण कहलाता है। इसका तात्पर्य यह है कि पूर्वमे निर्धारित पूर्ण आयुको भोगे बिना कारण-विशेषसे अल्पकालमे प्राणोका विसर्जन कर देना अकाल-मरण है। अकाल-मरण द्वारा आयुमें कमी तो हो जाती है पर प्रयत्न करनेपर भी पूर्व निश्चित आयुमे वृद्धि नहीं होती। इसका कारण घडीकी चाभीसे ही स्पष्ट ज्ञात किया जा सकता है। इस आयुके प्रहारको कोई भी नही बचा सकता। आत्म-दर्शन, आत्म-बोध और आत्म-निमग्नता इस रत्नत्रय मार्ग से ही आत्मा मृत्युके चक्रसे बच सकता है। अन्यथा प्रत्येकको इसके आगे मस्तक झुकाना पडता है। विश्वकी सारी शक्ति और सम्पूर्ण शक्तिशालियोका सहयोग भी क्षण-भरके लिए निश्चित जीवनमें वृद्धि नहीं कर सकता। प्रबुद्ध कवि कितनी मार्मिक वात कहते है "सुर असुर खगाधिप जेते। मृग ज्यो हरि काल दलेते। मणि मन्त्र तन्त्र बहु होई। मरतें न बचावै कोई॥" -दौलतराम-छहढाला। जिस प्रकार चित्रकार अपनी तूलिका और विविध रगोके योगसे सुन्दर अथवा भीषण आदि चित्रोको बनाया करता है, उसी प्रकार नाम १५
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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