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________________ कर्मसिद्धान्त २२७ ___ स्वामी शंकराचार्य इस जैन दृष्टिके महत्त्वको हृदयगम न करते हुए कहते है कि-शरीर प्रमाण आत्माको माननेपर शरीरके समान आत्मा अविनाशी नही होगा और उसे विनाशशील माननेपर परम-मुक्ति नहीं मिलेगी। शकराचार्य सदृश विचारकोकी धारणा है कि मध्यमपरिमाणवाली वस्तु अनित्य ही होती है। नित्य होनेके लिए उसे या तो आकाश के समान व्यापक होना चाहिये अथवा अणुके समान एक प्रदेशी होना चाहिए। यह कथन कल्पनामात्र है। क्योकि यह तर्ककी कसौटीपर नहीं टिकता। अणु परिमाण और महत् परिमाणका नित्यताके साथ अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है और न मध्यम परिमाणका अनित्यताके साथ कोई सम्बन्ध है। इसके सिवाय एकान्त नित्य अथवा अनित्य वस्तुका सद्भाव भी नही पाया जाता। वस्तु द्रव्यदृष्टिसे नित्य और पर्याय दृष्टिसे अनित्य है। यह बात हम पिछले अध्यायमें स्याद्वादका विवेचन करते हुए स्पष्ट कर चुके है। ____ आचार्य अनन्तवीयंने प्रमेयरत्नमालामे आत्माको शरीरप्रमाण सिद्ध किया है। क्योकि, आत्माके ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य लक्षण गुणो की सर्वांगमे उपलब्धि होती है। सर राधाकृष्णन्ने शकराचार्यकी पूर्वोक्त दृष्टिका उल्लेख करते हुए कहा है कि-"इन आक्षेपोका जैन लोग उदाहरण देकर समाधान करते है। जैसे-घडेके भीतर रखा गया दीपक घटाकाशको प्रकाशित करता है और वडे कमरेमे रखे जानेपर वही दीपक पूरे कमरेको भी प्रकाशित करता है। इसी भाति, भिन्न-भिन्न शरीरोके विस्तारके अनुसार जीव सकोच और विस्तार किया करता है।" यह विषय तन्वार्थसूत्रके १ "तदसाधारणगुणा ज्ञानदर्शनसुखवीर्यलक्षणास्ते च सर्वागीणास्तत्रैव चोपलभ्यन्ते।" -पृ० १८२। {"According to Sankara the hypothesis of the soul having the same size as its body is untenable far
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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