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________________ २०६ जैनशासन विस्तृत रीतिसे स्पष्ट किया गया है। स्याद्वादके वजूमय प्रासादपर जब एकान्तवादियोका शस्त्र प्रहार अकार्यकारी हुआ, तब एक तार्किक जैनधर्मके करुणातत्त्वका आश्रय लेते हुए कहता है, दयाप्रधान तत्वज्ञान का आश्रय लेनेवाला जैनशासन जब अन्य सप्रदायवादियोकी आलोचना करता है, तब उनके अत करणमे असह्य व्यथा उत्पन्न होती है, अत आपको क्षणिकादि तत्त्वोकी एकान्त समाराधनाके दोषोका उद्भावन नहीं करना चाहिये। यह विचारप्रणाली तत्वज्ञोके द्वारा कदापि अभिनदनीय नही . हो सकती। सत्यकी उपलब्धिनिमित्त मिथ्या विचारशैलीकी सम्यक् आलोचना यदि न की जाय तो भ्रान्त व्यक्ति अपने असत्पथका क्यो परित्याग कर अनेकान्त-ज्योतिका आश्रय लेनेका उद्योग करेगा? अनेकान्त विचार पद्धतिकी समीचीनताका प्रतिपादन होते हुए कोई मुमुक्षु इस भूममे पड सकता है, कि सम्भवत उसका इष्ट एकान्त पक्ष भी परमार्थ रूप हो, अत वह तब तक सत्पथपर जानेको अन्त प्रेरणा नहीं प्राप्त करेगा, जब तक उसकी एकान्त पद्धतिकी त्रुटियोका उद्भावन नही किया जायगा।' अहिंसाकी महत्ता बतानेके साथ हिंसासे होनेवाली क्षतियोका उल्लेख करनेसे अहिंसाकी ओर प्रबल आकर्षण होता है। अत परमकारुणिक जैन महर्षियोने अनेकान्तका स्वरूप समझाते हुए एकान्त के दोषोका प्रकाशन किया है। जीवका परमार्थ कल्याण लक्ष्यभूत रहनेके । कारण उनकी करुणा दृष्टिको कोई आच नही आती। तार्किक प्रकलक १ भगवत् जिनसेनने एकान्त मतोकी आलोचनात्मक पद्धतिको धर्मकथा रूप कहा है । वे कहते है "प्राक्षेपिणी कथां कुर्यात्प्राज्ञः स्वमत संग्रहे। विशेपिणी कयां तज्ज्ञः कुर्यादुर्मतनिग्रहे ॥" -महापुराण १३५-१।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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