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________________ समन्वयका मार्ग-स्याद्वाद २०५ शेषेष्वपि प्रवादेषु न ध्यान-ध्येय-निर्णयः । एकान्तदोष-दुष्टत्वात् द्वैताद्वैतवादिनाम् ॥ २५३॥ नित्यानित्यात्मकं जीवतत्त्वमभ्युपगच्छताम् । ध्यानं स्याद्वादिनामेव घटते नान्यवादिनाम् ॥ २५४॥" पर्व २१ स्याद्वाद शासनमे ही सब बातोकी सम्यक् व्यवस्था बनती है। समन्तभद्राचार्य इस द्वैत-अद्वैत एकान्तके विवादका निराकरण करते हुए कहते है "सत्सामान्यात्तु सर्वक्यं पृथक् द्रव्यादिभेदतः॥३४॥" सामान्य सत्त्वकी अपेक्षा सब एक है, द्रव्य गुण पर्याय आदिकी दृष्टि से उनमे पृथपना है। इस दृष्टिसे एकत्वका समर्थन होता है। साथ ही अनेकत्व भी पारमार्थिक प्रमाणित होता है। कोई-कोई जिज्ञासु पूछते है आपके यहा एकान्त दृष्टियोका समन्वय करनेके सिवाय वस्तुका अन्य स्वरूप माना गया है या नहीं? इसके समाधानमे यह लिखना उचित जंचता है कि स्याद्वाद दृष्टि द्वारा वस्तुका यथार्थ स्वरूप प्रकाशित किया जाता है । अन्य स्वरूप बताना सत्यकी नीवपर अवस्थित दृष्टिके लिए अनुचित है। स्याद्वाद दृष्टिमें मिथ्या एकान्तोका समूह होनेपर भी सत्यताका पूर्णतया सरक्षण होता है, कारण यहा वे दृष्टिया 'भी' के द्वारा सापेक्ष हो जाती है। ____इस स्याद्वादके प्रकाशमे अन्य एकान्त धारणाओके मध्य मैत्री उत्पन्न की जा सकती है। स्वामी समन्तभद्रकी आप्तमीमासामे समन्वयका मार्ग १ एकान्त दृष्टि, तत्त्व ऐसा ही है, कहती है। अनेकांत दृष्टि कहती है-तत्त्व ऐसा भी है। 'भी' से सत्यका संरक्षण होता है, 'ही' से सत्यका संहार होता है।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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