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________________ समन्वयका मार्ग-स्याद्वाद २०७ ने कहा ही है कि "नराम्यभावनाका आश्रय ले अपने पैरोपर कुठाराघात करनेवाले प्राणियोपर करुणा दृष्टि वश मैने एकान्तवादका निराकरण किया है, इसके मूलमें न अहकार है और न द्वेष है।" ___ अकलक देव तो यहा तक कहते है कि “यदि वस्तु स्वरूप स्वय अनेक धर्ममय न होता, और वह एकान्तवादियोकी धारणाके अनुरूप होता तो हम भी उसी प्रकारका वर्णन करते। जब अनेकान्त रूपको स्वय पदार्थोने धारण किया है, तब हम क्या करें?-'यदीदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् ।' पदार्थका स्वरूप लोकमत या लोकधारणाके आधारपर नहीं बदलता। वह पदार्थ अपने सत्य सनातन स्वरूपका त्रिकालमें भी परित्याग नही करता। अविनाशी सत्य स्वय अपने रूपमे रहता है। हमारे अभिमतकी अनुकूल प्रतिकूलताका उसके स्वरूपपर कोई प्रभाव नही पडता। सारा जगत् अपने विचित्र सगठित मतोके आधारपर भी पूर्वोदित सूर्यको पश्चिममे उदय प्राप्त नहीं बना सकता। ___ इस स्याद्वाद शैलीका लौकिक लाभ यह है कि जब हम अन्य व्यक्ति के दृष्टिबिन्दुको समझनेका प्रयत्न करेगे तो परस्परके भूममूलक दृष्टिजनित विरोध विवादका अभाव हो भिन्नतामे एकत्व ( Unity in diversity ) की सृष्टि होगी, आधुनिक युगमें यदि स्याद्वाद शैलीके प्रकाशमे भिन्न-भिन्न सप्रदायवाले प्रगति करे, तो बहुत कुछ विरोध का परिहार हो सकता है। “We can not make true things false or false things true by choosing to think them so We cannot vote right into wrong or wrong into right The eternal truths and rights of things exist fortunately independent of our thoughts or wishes fixed as mathematics inherent in the nature of man and the world" --Selected Essays of Froude'-P 69.
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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