SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६० जैनशासन और अभेदका वर्णन करनेसे यह निश्चय नहीं होता कि यथार्थमे उसका क्या रूप है इसलिए 'सशय' दोष दिखता है । सशय होने पर सम्यक् परिज्ञान नहीं होगा, अत. उसका अभाव होगा। इस प्रकार अभाव दोष भी होता है। इस प्रकार प्रतिवादियोने अनेकान्त सिद्धान्तपर उपयुक्त दोषोको अपनी दृष्टिसे लादनेका प्रयास किया है। उनका निराकरण करते हुए प्रतिभाशाली जैन तार्किक सत्य-धर्मकी प्रतिष्ठा इस प्रकार स्थापित करते है कि-वस्तुमे भेद और अभेदरूप धर्मोको प्रत्यक्षमे उपलब्धि होती है, तब इसमे दोषकी क्या बात है ? जव एक ही दृष्टिसे सत्त्व-असत्त्व, भेद-अभेद कहा जाय, तब विरोधकी आपत्ति उचित कही जा सकती है। भिन्न-भिन्न दृष्टियोसे एक ही वस्तु को हम ठडा और गरम भी कह सकते है। एक आदमी अपने एक हाथको बहुत गर्म पानीमे डाले और दूसरेको हिमसदृश शीतल जलमे रखे, पश्चात् दोनो हाथोको कुन-कुने पानीमे डाले, तो शीतल जलवाला हाथ उस जलको अधिक उष्ण बताएगा और अधिक उष्णजलवाला हाथ उस जलको शीतल सूचित करेगा। इस प्रकार भिन्न-भिन्न हाथोकी दृष्टिसे जल एक ही समय शीत और उष्ण रूपसे अनुभवगोचर होता है। यह वात जव प्रत्यक्ष अनुभवमे आती है, तब विरोध और असम्भव दोष नही रहते। सत् और असत् धर्म एक ही पदार्थमे पाये जाते है इसलिए वैयधिकरण्य दोष नहीं रहता। स्वरूपकी अपेक्षा वस्तुको सत् और पररूपकी अपेक्षा असत् स्वीकार किया है। इसमें भी सहकारियोके भेदसे शक्तिके अनन्त भेद हो जाते है। अनन्त धर्मात्मक वस्तु होनेसे वह यथार्थ है, अत अनवस्था दूषण धराशायी हो जाता है। सत्त्व और असत्त्व अथवा भेद-अभेद दृष्टियोको भिन्न-भिन्न अपेक्षाओसे कहते है। पिताकी अपेक्षा पुत्र है, भाई आदिकी अपेक्षा पुत्र नही है। इस प्रकार एक व्यक्तिमे पुत्रपनेका सद्भाव और असद्भाव दोनो 'पाये जाते हैं। इस प्रत्यक्ष अनुभवके प्रकाशमे सकर और व्यतिकर दोष भी नहीं रहते।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy