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________________ समन्वयका मार्ग-स्याद्वाद १६१ वस्तुका स्वरूप स्वरूप-चतुष्टयकी अपेक्षा अस्तिरूप ही है और अन्य चतुष्टयकी अपेक्षा असत् रूप ही है, ऐसी निश्चित ज्ञानकी अवस्थामे संशयदोष भी नहीं रहता। अनेक धर्ममय वस्तु-स्वरूपकी उपलब्धि होने से अभावदोषका अभाव हो जाता है। शकराचार्यने सुदृढ तर्कपर अवस्थित स्याद्वादके प्रासादपर आक्रमण न कर अपनी मनोनीत कल्पना-मय कुटीरको स्याद्वादका नाम दे तस्त्रिोसे ध्वस्त करनेका प्रयत्न किया है। इसलिए स्याद्वाद विद्वेषियोकी भान्त बुद्धिका परिचय कराते हुए स्याद्वादका मनोज्ञ सुदृढ प्रासाद अनेकान्त पताकाको फहराता हुआ सत्यान्वेषियोको अपनी ओर आकर्षित करता है। ___ शकरके दुर्वल युक्तिवादको अकाट्य समझ अध्यापक श्री बलदेवजी उपाध्यायने अपने 'भारतीय-दर्शन'मे स्याद्वादको 'आपातत उपादेय और मनोरञ्जक' कहते हुए लिखा है कि-"वह व्यवहार और परमार्थ वीचो-बीच तत्त्वविचारका कतिपय क्षणके लिए विश्रम्भ तथा विराम देनेवाले विश्रामगृहसे बढ़कर अधिक महत्त्वका नहीं है।" हमारे साहित्याचार्यजीने दार्शनिक शकरके सहारे पूर्वोक्त बातें कही किन्तु, जब तर्क और अनुभवने शकरकी युक्तियोको प्राण-हीन प्रमाणित किया और स्वयं अधिकार-पूर्ण समर्थ वैदिक विद्वानोने इसे स्वीकार किया, तव वलदेवजीके प्रतिवादकी आवश्यकता नही रहती। ऐसी मूल तत्त्वका स्पर्श न करनेवाली आलोचना सत्य दृष्टिवालोके समक्ष अन्धेन नीयमान अन्धकी तरह मालूम होती है। ___ अनेकान्तवादके उज्ज्वल प्रकाशसे जिन अज्ञोकी आखे और बन्द हो गईं, उनको यशोविजय उपाध्याय करुणाके पात्र बताते हुए कहते है - "दूषयेत् अज्ञ एवोच्चैः स्याद्वादं न तु पण्डितः। अज्ञप्रलापे सुज्ञानां न द्वेषः करुणैव तु ॥"६४॥-न्यायखंडखाद्य अज्ञ जन ही स्याद्वाद पर महान् दोषारोपण करते है, विज्ञ लोग नही; अज्ञानियोके प्रलाप पर सुधीपुरुष रोष न कर करुणा करते है।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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