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________________ समन्वयका मार्ग-स्थाद्वाद १८६ अभय हो सकता था सर्वथा अक्षम्य ऐसा जान प में क्षम्य हो सकती थी; किन्तु यदि मुझे कहनेका अधिकार है तो मै भारत के इस महान् विद्वान्मे सर्वथा अक्षम्य ही कहूँगा, यद्यपि मै इस महर्षिको अतीव आदरकी दृष्टिसे देखता हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होने इस धर्मके '(जिसके लिए अनादरसे विवसन-समय अर्थात् नग्न लोगोका सिद्धान्त ऐसा नाम वे रखते है ) दर्शन गास्त्रके मूलनथोके अध्ययनकी परवाह न की।” अस्तु।। ___ शकराचार्य एक पदार्थमे सप्तधर्मोके सद्भावको असम्भव मानते हुए लिखते है-“एक धर्मीमे युगपत् सत्त्व-असत्त्व आदि विरुद्ध धर्मोका समावेश शीत और उष्णपनेके समान सम्भव नही है। जो सप्त पदार्थ निर्धारित किये गये है वे इसी रूपमे है, वे इसी रूपमे रहेगे अथवा इस रूप नही रहेगे अन्यथा इस रूप भी होगे, अन्य रूप भी होगे इस प्रकार अनिश्चित स्वरूपनान सगयज्ञानके समान अप्रमाण होगा। अपनी अनोखी दृष्टिसे इस प्रकार वे समय और विरोध नामके दोषोका उल्लेख करते है। इसी प्रकार अन्य प्रतिवादी वैयधिकरण्य दोपको बताते है, कारण भेदका आधार दूसरा है और अभेदका दूसरा। अनवस्था दोष इसलिए मानते है कि जिस स्वरूपकी अपेक्षा भेद होता है और जिसकी अपेक्षा अभेद है वे भिन्न है या अभिन्न ? और उनमे भी इसी प्रकार भिन्नअभिन्नकी कल्पना उत्पन्न होगी। जिस रूपसे भेद है उसी रूपसे भेद भी है और अभेद भी है इस प्रकार सकरदोप वताया जाता है। जिस अपेक्षासे भेद है उसी अपेक्षासे अभेद और जिस अपेक्षासे अभेद है उसी अपेक्षासे भेद है इस प्रकार व्यतिकर दोष होता है। वस्तुमे भेद १ "न ह्येकस्मिन् धर्मिणि युगपत्सदसत्त्वादिविरुद्धधर्मसमावेशः सम्भवति शीतोष्णवत् । य ऐते सप्तपदार्था निर्धारिता एतावन्त एवंरूपाश्चेति ते तथैव वा स्युर्नेव वा तथा स्युः, इतरथा हि तथा वा स्युरितरथा वेत्यनिर्धारितरूपज्ञानं संशयज्ञानवदप्रमाणमेव स्यात् ।। -वेदान्तसूत्र,शांकरभाष्य ।।३३।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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