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________________ १८८ जैनशासन इसी प्रकार अन्य धर्मोका अस्तित्व एकान्त अनिर्वचनीयवाद सिद्धान्तकी, अपरमार्थताको प्रमाणित करता है । वेदान्तवादियोको स्याद्वाद यदि अभीप्ट होता तो वेदान्तसूत्रमें 'नैकस्मिन्नसम्भवात्' सूत्र और उसके शाकरभाष्यमे आक्षेप न किया जाता। शकराचार्यने अपने शाकरभाष्य अध्याय २, सूत्र ३३ मे जो स्याद्वादके विरुद्ध लिखा है उसकी आलोचना करनेके पूर्व यह लिख देना उपयुक्त प्रतीत होता है कि वर्तमान युगके प्रकाण्ड दार्शनिक किन्ही किन्ही जैनेतर विद्वानोने शकराचार्यकी आलोचनाको सदोष और अज्ञानपूर्ण लिखा है । संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित डॉ० महामहोपाध्याय गंगानाथझा वाइसचासलर प्रयाग विश्वविद्यालयने लिखा था - " जवसे मैने शकराचार्य द्वारा जैनसिद्धान्तका खण्डन पढा है, तबसे मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धान्तमे बहुत कुछ है, जिसे वेदान्तके आचार्योंने नही समझा । और जो कुछ में अबतक जैनधर्मको जान सका हूँ उससे मेरा यह दृढ विश्वास हुआ है कि यदि वे (शकराचार्य) जैनधर्मको उसके असली ग्रन्थोसे देखनेका कप्ट उठाते तो उन्हें जैनधर्मके विरोध करनेकी कोई बात नही मिलती ।" काशी हिन्दू-विश्वविद्यालयके दर्शनशास्त्र के अध्यक्ष प्रो० फणिभूषण अधिकारी स्याद्वादपर शकराचार्य के आक्षेपके विषयमे कितने मार्मिक उद्गार व्यक्त करते हैं । वे लिखते है ' - " विद्वान् शकाराचार्यने इस सिद्धान्तके प्रति अन्याय किया है। यह बात अल्प योग्यतावाले पुरुषो १ " तत्र सत्त्वं वस्तुधर्मः, तदनुपगमे वस्तुनो वस्तुत्वायोगात् खरविषाणादिवत् तथा कथञ्चिदसत्त्वं स्वरूपादिभिरिव पररूपादिभिरपि वस्तुनोऽसत्त्वानिष्टौ प्रतिनियत स्वरूपाभावाद्वस्तुप्रतिनियमविरोधात् ।” - प्रष्टसहस्त्रीविवरण पृ० १८३ । २ 'जैनदर्शन', स्याद्वादांक, पृ० १८२ । "
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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