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________________ समन्वयका माग-स्याद्वाद १७६ प्रधानतासे बताता है । इस प्रकार स्यात् शब्द द्वारा अनेकान्त और सम्यक् एकान्तका बोध होता है। ___ वस्तुके अनन्त धर्मोका जिन एकान्तियोको पता नही है, वे स्याद्वाद विद्याका प्रतिपादन करने में समर्थ न हो सके। भगवान् ऋषभदेवसे लेकर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकरोने श्रेष्ठ साधनाके फलस्वरूप सर्वज्ञताके सूर्यको प्राप्त किया और उसके प्रकाशमें स्याद्वाद विद्याका. परिचय पाया। इसीलिए अकलंकदेवने लघीयस्त्रय ग्रन्थके प्रमाणप्रवेश प्रकरणके प्रारम्भमे तीर्थकरोको पुन पुन स्वात्मोपलब्धिके लिए प्रणाम करते समय 'स्याद्वादी' शब्दसे समलड कृत किया है। कितना भावपूर्ण मगल श्लोक है "धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमो नमः। ऋषभादिमहावीरान्तेभ्यः स्वात्मोपलब्धये ॥" इस स्याद्वाद-वाणीके आधारपर महापुराणकार भगवज्जिनसेन जिनेन्द्र भगवान्मे सर्वज्ञताका सद्भाव सूचित करते है। जिनेन्द्र वृषभनाथका स्तव करते हुए कहते है, "हे ईश, आपकी सार्वत्रिकी वाणीकी पवित्रता आपके सर्वज्ञपनेको वताती है। इस जगत्मे इस प्रकारका महान् वचन-वैभव अल्पज्ञोमें नही दिखाई पडता है।" १ "स्याज्जीव एव इत्युक्तेऽनेकान्तविषयः स्याच्छब्दः । 'स्यादस्त्येव जीवः' इत्युक्ते एकान्तविषयः स्याच्छब्दः।"-लघी० पृ० २१॥ २ "सार्वज्ञं तव वक्तीश वचःशुद्धिरशेषगा। न हि वाग्विभवो मन्दधियामस्तीह पुष्कलः॥१३३॥ वक्तृप्रामाण्यतो देव वचःप्रामाण्यमिष्यते। न ह्यशुद्धतराद्वक्तुः प्रभवन्त्युज्ज्वला गिरः॥१३४॥ सप्तभंग्यात्मिकेयं ते भारती विश्वगोचरा। प्राप्तप्रतीतिममलां त्वय्युद्भावयितुं क्षमा॥१३५॥" -महापुराण, पर्व ३३॥
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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