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________________ १७८ जैनशासन अर्थका बोधक है। 'वाद' शब्द कथनको बताता है। इसका भाव यह है कि वस्तु किसी दृष्टिसे इस प्रकार है, किसी दृष्टिसे दूसरी प्रकार है। इस तरह वस्तुके शेष अनेक धर्मो-गुणोको गौण बनाते हुए गुणविशेषको प्रमुख बनाकर प्रतिपादन करना स्याद्वाद है। स्वामी समन्तभद्र कहते है"स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् किंवृत्तचिद्विधिः।" प्राप्तमीमांसा १०४ । लघीयस्त्रयमे अकलंककदेव लिखते है-"अनेकान्तात्मकार्थकथन स्याद्वाद.१ अनेकान्तात्मक-अनेक धर्म-विशिष्ट वस्तुका कथन करना स्याद्वाद है।" कथनके साथ स्यात् शब्दका प्रयोग करनेसे सर्वथा एकान्त दृष्टिका परिहार हो जाता है। स्याद्वादमे वस्तुके अनेक धर्मोका कथन होनेके कारण उसे अनेक धर्मवाद अथवा अनेकान्तवाद कहते है। जब अनन्त धर्मोपर दृष्टि रहती है तब उसे सकलादेश-परिपूर्ण दृष्टि कहते है। जव एक धर्मको प्रधान बना शेष धर्मोको गौण बना दिया जाता है तब उसे विकलादेश-अपूर्ण दृष्टि कहते है। विकलादेशको नय-दृष्टि और सकलादेशको प्रमाण-दृष्टि कहते है। जीव मे ज्ञान दर्शन, सुख, शक्ति आदि अनन्त गुण विद्यमान है। जब प्रतिपादककी विवक्षा-दृष्टि अनन्त गुणोपर केन्द्रित रहती है तब स्यात् गब्दके साथ 'जीव' पदका प्रयोग उसके अनन्त धर्मोको सूचित करता है। इसलिए अकलंक स्वामीने लिखा है-'स्यात् जीव एव' ऐसा कथन होनेपर 'स्यात्' शब्द अनेकान्त अनेक धर्मपुञ्जको विषय करता है। "स्यात् अस्त्येवजीव" इस वाक्यमे 'स्यात्' शब्द जीवके अस्तित्व गुणको १ "उपयोगी श्रुतस्य द्वौ स्याद्वादनयसंज्ञितौ। स्याद्वादः सकलादेशः नयो विकलसंकथा ॥६॥" -लघीयस्त्रय।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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