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________________ जैनशासन "प्रभो, बक्ताकी प्रामाणिकतासे वचनकी प्रामाणिकता मानी जाती है । अपवित्र वक्ताके द्वारा उज्ज्वल वाणी नही उत्पन्न होती है ।" " आपकी विश्व विषयिणी सप्तभग रूप भारती आपमे विशुद्ध आप्तप्रतीतिको उत्पन्न करनेमें समर्थ है ।" १५० कवि धनजय कहते हैं -“जिस प्रकार ज्वर - मुक्त व्यक्तिका बोध उसके स्वर विशेषके द्वारा होता है उसी प्रकार स्याद्वाद वाणीके द्वारा जिनेन्द्र भगवान्की निर्दोषताका ज्ञान होता है ।" आत्माकी सर्वज्ञतापर तार्किक दृष्टिसे पहिले प्रकाश डाला जा चुका है | यहा हम वौद्धोके अत्यन्त मान्य ग्रन्थ मज्झिमनिकाय ( भाग १, पृ० ९२-९३ ) का निम्नलिखित प्रमाण उपस्थित करते है, जिससे जैनधर्मके प्रबल प्रतिद्वद्वी बौद्ध साहित्य द्वारा भगवान् महावीरकी सर्वज्ञता की मान्यतापर प्रकाश पडता है । पुरातन बौद्ध पाली वाडमयमे भगवान् महावीर और जैन सस्कृतिके विरुद्ध काफी असयत तथा रोषपूर्ण उद्गार अनेक स्थलोपर व्यक्त किए गए है। भगवान् महावीरके समकालीन साहित्यमे निर्ग्रन्थ ज्ञात-पुत्र महावीरको सर्वज्ञ और सर्वदर्शी तथा परिपूर्ण ज्ञान, दर्शनके ज्ञातापनेकी मान्यताका उल्लेख अत्यधिक प्रभावपूर्ण साक्षी माना जाना चाहिए । पालीमे शब्द ये है “निगण्ठो, श्रावसो, नाथपुत्तो सव्वञ्ञ, सव्वदरसावी अपरिसेसं त्राणदस्सनं परिजानाति ।" - म० नि०, भाग १, पृ० ९१-९३ : P.T.S. वाणीके द्वारा एक साथ परिपूर्ण सत्यका प्रतिपादन करना सम्भव नही है, इसलिए जिस धर्म या जिन धर्मोका वर्णन किया जाए वे प्रधान १ " नानार्थमेकार्थ मदस्त्वदुक्तं हितं वचस्ते निशमय्य वक्तुः । निर्दोषतां के न विभावयन्ति ज्वरेण मुक्तः सुगमः स्वरेण ॥" - विषापहार २६ ।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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