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________________ अहिंसा के आलोक मे १४७. हटे । मुक्तिकी प्रवल पिपासा जाग्रत होनेपर सम्पूर्ण वैभवका परित्याग कर उन्होने मुनि-पद अगीकार किया तथा कर्मोको नष्ट कर डाला । भगवज्जिनसेनने लिखा है कि- प्रजाके जीवननिमित्त भगवान् आदिनाथ प्रभुन गृहस्थोको शस्त्रविद्या, लेखन - कला, कृषि, वाणिज्य, सगीत और शिल्प कलाकी शिक्षा दी थी "सिर्मषिः कृषिविद्या वाणिज्य शिल्पमेव च । कर्माणीमानि षोढा त्यु प्रजाजीवनहेतवे ॥" - श्रादिपुराण पर्व, १६ अहिंसक गृहस्थ बिना प्रयोजन इरादापूर्वक तुच्छ से तुच्छ, प्राणीको कष्ट नही पहुँचाएगा, किन्तु कर्तव्यपालन, धर्म तथा न्यायके परित्राणनिमित्त वह यथावश्यक अस्त्र-शस्त्रादिका प्रयोग करने से भी मुख न मोडेगा । आचार्य सोमदेव ने गस्त्रोपजीवी क्षत्रियोको अहिसाका व्रती इस तर्क द्वारा सिद्ध किया है "निरर्थकaaत्यागेन क्षत्रिया व्रतिनो मताः ।" शस्त्रादिग्रहणके विपयमे जैन नरेन्द्रकी दृष्टिको सोमदेव यशस्तिलक मे इन शब्दोमे प्रकट करते है - "यः शस्त्रवृत्तिः समरे रिपुः स्याद् यः कण्टको वा निजमण्डलस्य । अस्त्राणि तत्रैव नृपाः क्षिपन्ति न दीन- कानीन- शुभाशयेषु ॥” जैन' नरेश उनपर ही शस्त्र प्रहार करते है जो शस्त्र लेकर युद्धमें १ " दुष्ट निग्रहः शिष्टप्रतिपालन हि राज्ञो धर्म न तु मुण्डनं जटाधारण च । " - सम्यक्त्वकौमुदी पृ० १५ " राज्ञो हि दुष्टनिग्रहः शिष्टपरिपालनं च धर्मः ॥ २ ॥ न पुनः शिरोमुण्डनं जटाधारणादिकम् ॥ ३ ॥ " - नीतिवाक्यामृत पृ० ४२ ॥ ·
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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