SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ जैनशासन मुकाबला करता हे अथवा जो अपने मण्डलका कण्टक होता है । वह दीन, दुर्बल अथवा सद्भावनावाले व्यक्तियो पर शस्त्रप्रहार नही करते । गृहस्थ स्थूल - हिंसाका त्याग करता है । स्थूल शब्दका भाव यह है कि निरपराध व्यक्तियोका सकल्पपूर्वक हिसन कार्य न किया जाय । पुराणोमे यह बात अनेक वार सुननेमे आती है कि अपराधियोको यथायोग्य दण्ड देनेवाले चक्रवर्ती आदि अणुव्रती थे इसमे कोई विरोध नही आता ।' जो यह समझते है कि जैनधर्मकी अहिसामे दैन्य और दुर्बलताका ही तत्त्व छिपा हुआ है उनकी धारणा उतनी ही भ्रान्त है जितनी उस व्यक्तिकी जो सूर्यको अधकारका पिण्ड समझता है। जैन दृष्टिमे न्यायको धर्मसमान महत्त्वपूर्ण कहा है। अमृतचन्द्र स्वामीने पुरुषार्थसिद्धयुपायमे स्थितिकरण अगका वर्णन करते हुए यह बताया है - " न्याय मार्ग से विचलित होनेमे उद्यत व्यक्तिका स्थितीकरण करना चाहिए ।" अन्यान्य ग्रन्थकारोने जहा 'धर्म' शब्दका प्रयोग किया है वहा श्रतचन्द्र स्वामीने 'न्याय' शब्दको ग्रहणकर न्यायके विशिष्ट अर्थपर प्रकाश डाला है । एक समय जब महाराज अकम्पनकी पुत्री सुलोचनाका स्वयवर हो रहा था, तब चक्रवर्ती भरतेश्वरके पुत्र अर्ककीर्तिने उस कन्या - रत्नका लाभ न होनेके कारण निराश हो काफी गडवडी की । दोनो ओरसे रणभेरी बजी। युद्धमे सुलोचनाके पति, भरतेश्वरके सेनापति, जयकुमारकी विजय हुई | उस समय शान्ति स्थापित होनेपर महाराज अकम्पनने सम्राट भरतके पास अत्यन्त आदरपूर्वक निवेदन प्रेषित करते हुए अपनी १ " स्थूलग्रहणमुपलक्षण तेन निरपराधसकल्पपूर्वक हिसादीनामपि ग्रहणम् । श्रपराधकारिषु यथाविधिदण्डप्रणेता चक्रवर्त्यादीनां अणुव्रतादिधारणं पुराणादिषु बहुश. श्रूयमाण न विरुध्यते । " - सागारधर्म० ४, ५ । २ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय २८ । रत्नकरण्ड श्रा० १६ । ६
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy