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________________ १४६ जैनशासन सफलताके साथ पालन किया था और उच्च पद प्राप्त किया था। यहा इतना जानना चाहिये कि जितने अशमे भीलने हिसाका त्याग किया है उतने अशमे वह अहिंसक था, सर्वाशमे नही । परिस्थिति, वातावरण और शक्तिको ध्यानमे रखते हुए महर्षियोने अहिसात्मक साधनाके लिए अनुजा दी है। कहा भी है "जं सक्कइ तं कीरइ ज य ण सक्कइ तहेव सद्दहणं।' सदहमाणो जीवो पावइ अजरामरं गण॥" जितनी शक्ति हो उतना आचरण करो, जहा शक्ति न चले, श्रद्धाको जागृत करो। कारण श्रद्धावान् प्राणी भी अजर-अमर पदको प्राप्त करता है। ___ अहिंसाका अर्थ कर्तव्यपरायणता है । गृहस्थसे मुनितुल्य श्रेष्ठ अहिंसा की आगा करनेपर भयकर अव्यवस्था उत्पन्न हुए बिना न रहेगी। इस युगकी सबसे पूज्य विभूति समाट भरतके पिता आदि अवतार ऋषभदेव तीर्थकरने जव महामु निका पद स्वीकार नही किया था और गृहस्थशिरोमणि थे-प्रजाके स्वामी थे तव प्रजापालक नरेशके नाते अपना कर्तव्यपालन करनेमे उन्होने तनिक भी प्रमाद नही दिखाया। स्वामी समन्तभद्र के शब्दोमे उन्होने अपनी प्यारी प्रजाका कृषि आदि द्वारा जीविकाके उपायकी शिक्षा दी। पश्चात तत्त्वका बोध होनेपर अद्भुत उदययुक्त उन ज्ञानवान् प्रभुने ममताका परित्याग कर विरक्ति धारण की। जव वे मुमुक्षु हुए तव तपस्वी वन गए। इससे इस बातपर प्रकाश पडता है कि ऋषभदेव भगवान्ने प्रजापतिकी हैसियतसे दीन-दुखी प्रजाको हिंसाबहुल खेती आदिका उपदेश दिया-कर्तव्य पालनमें वे पीछे नहीं १ "प्रजापतिर्गः प्रथमं जिजीविषुः शशास कृष्यादिषु कर्नसु प्रजाः। मुमुक्षुरिक्ष्वाकुकुलादिरात्मवान् प्रभुः प्रववाज सहिष्णुरच्युतः॥" -वृ० स्वयम्भूस्तोत्र २३॥
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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