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________________ प्रवुद्ध-साधक मल-जनित, मान-सन्मान-वश, प्रज्ञा और प्रशानकर। दर्शन-मलीन बाईस सव-साधु परोषह जान नर॥" -भूधरदास बहिरात्म-भाववाले भाई सोचते है-'विना कोई विशेष वलवती भावना उत्पन्न हुए साधु कप्टोको आमन्त्रण दे प्रसन्नतापूर्वक किस प्रकार सहन कर सकता है ? पडित आशाधरजीने बताया है कि सत्पुरुष सकट के समय सोचते है-वास्तवमे मै मोक्षस्वरूप हूँ, अविनाशी हूँ, आनन्दका भण्डार हूँ, कल्याणस्वरूप हूँ। शरण रूप हूँ। ससार इसके विपरीत स्वरूप है । इस ससारमे मुझे विपत्तिके सिवाय और क्या मिलेगा?' आत्माकी अमरतापर अखण्ड विश्वास रख वे नश्वर जगत्के लुभावने रूपके भूममे नही फंसते, सद्भावनाओके द्वारा कहते हैमोह नोंदसे उठ रे चेतन-तनिक सोच तो "सूरज चांद छिप निकस, रितु फिर-फिर कर आवै, प्यारी आय ऐसी वीतै पता नहि पावै। काल सिंहने मृग-चेतनको घेरा भव-बनमें। नहीं बचावन हारा कोई, यों समझो मनमें । मत्र-यंत्र सेना धन-सम्पति राज-पाट छूट। वश नहिं चलता, काल-लुटेरा, काय नगरि लूट ।" प्रबुद्ध-साधक यह भी विचारता है "जनमै मरै अकेला चेतन सुख दुखका भोगी। और किसीका क्या, इक दिन यह, देह जुदो होगी। कमला चलत न पैड, जाय मरघट तक परिवारा। अपने-अपने सुखको रोवै पिता, पुत्र दारा ॥ १ मोक्ष प्रात्मा सुखं नित्यः शुभः शरणमन्यथा। भवेऽस्मिन् वसतो मेऽन्यत् किं स्यादित्यापदि स्मरेत् ॥ -सागारधर्मामृत, ५,३०॥
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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