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________________ ११२ जैनशासन ज्यो मेलेमें पथी जन, नेह धरै फिरते। ज्यो तरवर पै रैन बसेरा पंछी आ करते ॥ कोस कोई, दो कोस कोई उड़ फिर, थक-थक हार । जाय अकेला हंस, संगमें कोई न पर मार ॥" ससारके विषयमे वह चिन्तवन करता है "जन्म मरण अरु जरा रोग से सदा दुखी रहता। द्रव्य, क्षेत्र अरु काल भाव भव परिवर्तन सहता ।। छेदन भेदन नरक पशु गति, वय वंधन सहना । राग-उदयसे दुख सुर गतिमें कहां सुखी रहना । भोग पुण्य-फल हो इक इन्द्री क्या इसमें लाली । कुतवाली दिन चार फिर वही खुरपा अरु जाली ॥" जडसे आत्माको भिन्न विचारता हुआ अपनी आत्माको इस प्रकार साधक सचेत करता है "मोहरूप मृग-तृष्णा-जलमें मिथ्या-जल चमकै । मृग-चेतन नित भूममें उठ-उठ दौड़े थकथक के । जल नहिं पावै प्रान गमावै, भटक भटक मरता । वस्तु पराई मान अपनी, भेद नहीं करता। तू चेतन, अरु देह अचेतन, यह जड़, तू ज्ञानी । मिलै अनादि, यतन तें बिछरै, ज्यो पय अरु पानी ॥" इस घृणित मानव देहको सडे गन्नेके समान समझ साधक सोचता है "काना पौंडा पड़ा हाथ यह, चूसै तौ रोवै । फलं अनन्त जु धर्मध्यानकी भूमि विष बोवै ॥ केशर चन्दन पुष्प सुगन्धित वस्तु देख सारी। देह परस तै होय अपावन निस-दिन मल जारी ।" साधनकी अनुकूल सामग्रीको अपूर्व मान वे महापुरुष सोचते है और अपने अनन्त जीवनपर दृष्टि डालते हुए इस प्रकार विचारते है
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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