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________________ जैनशासन वे समता, जिनेन्द्रस्तुति, वीतरागवन्दन, स्वाध्याय, दोषशुद्धि निमित्त प्रतिक्रमणरूप छह आवश्यक कर्मोको सावधानीपूर्वक पालते है। इनका चरित्र उदात्त होता है। पूर्व-बद्ध कर्मोकी निर्जरा करनेके लिए तथा सकट आनेपर सन्मार्गसे अपना कदम पीछे तनिक भी न हटे इस दृढता निमित्त वे भूख, प्यास आदि वाईस परीपहो (-कप्टो) को राग-द्वेष-मोहको छोड़ सहन करते है। पार्श्वपुराणमे इनके नाम यो है "क्षुधा, तृषा, हिम, उष्ण, डंस-मशक दुख भारी। निरावरन-तन, अरति-खेद उपजावन हारी॥ चरिया, आसन, शयन, दुष्ट वाधक, बध बंधन । . या नहीं, अलाभ, रोग, तिण-फरस निबंधन ।। १ "सम्यक प्रकार निरोष मन-वच-काय आतम ध्यावते । तिन सु-थिर मुद्रा देखि मृग-गण उपल खाज खुजावते ॥ रस-रूप-गंध तथा फरस अल शब्द शुभ-असुहावन । तिनम न राग-विरोध पंचेंद्रिय जयन पद पावने ॥ समता सम्हारै थुति उचार, बन्दना जिन देव को। नित कर श्रुत रति, धरै प्रतिक्रम, तज तन अमेव को॥ जिनके न न्हौन, न दन्त-धोवन लेश अंबर पावरन । भू माहिं पिछली रयनि में कछ शयन एकाशन करन॥ एक बार दिन में ले अहार खड़े अलप निज-पाणि में। कच-लोच करत न डरत परिषह सो लगै निजध्यान में ॥ अरि-मित्र, महल-मसान, कंचन-कांच निन्दन-थुतिकरन । अर्घावतारन-असि प्रहारन मै सदा समता धरन॥" -छहढाला, छठवी ढाल।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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