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________________ १०० जैनशासन करन विषय क्श हिरन अरनमें, खलकर प्राण लुनावै है । हे मन, तेरी को कुटेच यह करन विषयमें धाव है ॥" एक ओर जहा वह विषय और भोगोके दुष्परिणामको देखता है, तो दूसरी ओर त्यागके माहात्म्यसे उसकी आत्मा प्रभावित हुए विना नही रहती। यह तो तृष्णा-पिशाचिनीका काम है, जो ओसकी बूंदके समान विषयभोगोके द्वारा अनन्त तृपा शान्त करनेका जीव प्रयत्न करता है। वास्तवमै सासारिक वस्तुओमे सुख है ही नहीं। महात्मा लोग ठीक ही कहते है "जो संसार विष सुख होता तीर्थ कर क्यो त्याग ! काहेको शिव-साधन करते, संयमसो अनुरागे?" यदि अपनी वास्तविक आवश्यकताओपर दृष्टिपात किया जाए, तो समर्थ और वीतराग आत्मा मधुकरी वृत्तिके द्वारा भोजन ग्रहण करते हुए प्राकृतिक-परिधानको धारण कर प्रकृतिकी गोदमे आत्मीय विभूतियो की अभिवृद्धि कर सकता है। ऐसे व्यक्तिसे इष्ट-अनिष्ट कर्म स्वय घबराते है। यदि आत्माकी दुर्वलता दूर हो जाय और उसमे पाशविक वासनाएँ न रहे, तो समर्थ आत्माको दिगम्बर वेषके सिवा दूसरी मुद्रा नही रुचेगी। कारण, उस मुद्रा में उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य की अवस्थिति और अभिवृद्धि होती है। आत्म-निर्भरता और आत्म-निमग्नताके लिए वह अमोघ उपाय है। उस पदसे आकर्षित हो इस युगके राष्ट्रीय महापुरुष गांधीजी कहते है"नग्नता मुझे स्वय प्रिय है।" यथार्थमे श्रेष्ठपुरुष कृत्रिम वस्त्राभूषणादि व्यर्थकी सामग्रीका परित्याग कर प्रकृतिप्रदत्त. मुद्राको धारण कर शान्तिलाभ करते है। विषय-वासनाओके दास और भोगोके गुलाम स्वयकी असमर्थता और आत्म-दुर्वलताके कारण दिगम्बर मुद्राको धारण करनेमे समर्थ न हो कभी-कभी उस निर्विकार मारविजयकी द्योतिनी विद्याको लाञ्छित करनेका प्रयत्न करते हैं। पार्श्वपुराणमें कितनी सुन्दर बात कही गयी है
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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