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________________ प्रवुद्ध-सावक ९६ । प्रगतिसे वरवस रोका करती है। और, इसलिए साधारण साधक होते हुए भी वह "संयम घर न सकत पं संयम धारनकी उर चटापटी सी। सदननिवासी, तदपि उदासी, तात आलव छटाछटी सी॥" आन्तरिक अवस्थावाला विलक्षण व्यक्ति बनता है। वह अपने मनको समझाते हुए कहता है-अरे मूर्ख, इन भोग और विषयोमे क्या धरा है। इन कर्मोने तेरे अक्षय-सुखके भाण्डारको छीन लिया है। अनन्त ज्ञाननिविको लूट रखा है और तू अनन्त वलका अवीश्वर भी है, इसका पता तक नहीं चल पाता। यदि तू स्वयं नष्ट होनेदाले विषयोका परित्याग कर दे, तो ससार-ससरण रुक सकता है। वादीसिंह सूरि समझाते है "अवश्यं यदि नश्यन्ति स्थित्वापि विषयाश्चिरम् । स्वयं त्याज्यास्तथा हि स्यात् मुक्तिः संसृतिरन्यया।" -क्षत्रचूडामणि-१ । ६७ । आध्यात्मिक कवि दौलतरामजी अपने मनको एक पदमे समझाते हुए कहते है कि यह विषय तुझे अपने स्वल्पको नहीं देखने देते और___ "पराधीन छिन छीन समाकुल दुर्गति विपति चखावै है" प्रकृतिके अन्तस्तलका अन्तर्द्रष्टा वन कवि क्रूर कर्मके अत्याचारोको ध्यानमे रखते हुए सोचता है कि जब छोटे-छोटे प्राणियोंको एक-एक इन्द्रियके पीछे अवर्णनीय यातनाओका सानना करना पड़ता है, तव सभीका आसक्तिपूर्वक सेवन करनेवाले इस नरदेहधारी प्राणीका क्या भविष्य होगा "फरस विषयके कारन वारन गरत परत दुख पावै है। रसना इन्द्री वश झष जलमें कण्टक कण्ठ छिदावै है ॥ गध लोल पंकज मुद्रितमें, अलि निज प्राण गमावै है । नयन विषय वश दीप शिखामें, अंग पतंग जराव है ॥
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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