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________________ जैनशासन ससारपरिभूमणका कारण पूज्यपाद स्वामीकी दृष्टिमे शरीरमें आत्माकी भावना करना है। विदेहत्व-निर्वाणका बीज आत्मामें आत्म-भावना है "देहान्तरगते/जं देहेऽस्मिन्नात्मभावना। बीजं विदेहनिष्पत्तः, प्रात्मन्येवात्मभावना ॥७४॥" इस आत्म-दृष्टिके वैभवसे सपन्न साधकके पास किसी प्रकारकी भीति नहीं रहती। उसकी दृष्टि सदा अमर जीवन और अविनाशी आनन्दकी ओर लगी रहती है। उसकी श्रद्धामे तो महर्षि कुन्दकुन्दके शब्दोमे यह बात टकोत्कीर्णसी हो जाती है कि-मेरा आत्मा एक है, ज्ञानदर्शन-समन्वित है, बाकी सब बाह्य पदार्थ है-वे सब सयोगलक्षणवाले है, आत्माके स्वरूप नही है-- "एगो मे सस्सदो आदा, णाणदसणलक्खयो। सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे सजोग-लक्खणा॥" -भावपाहुड जव ऐसे उज्ज्वल विचार आत्मामें स्थान बना लेते है, तब मृत्युसे भेट करानेवाली मुसीबत भी उस ज्ञानज्योतिर्मय आत्माको सतप्त नहीं करती। उसका यह अखण्ड विश्वास रहता है, कि मेरा आत्मा जन्म, जरा, मृत्यु आदिकी आपदाओसे परे है। इनका खेल शरीर अथवा जड पदार्थों तक ही सीमित है। आत्मसाधक पूज्यपादस्वामी तो अतरात्माके लिए प्रबोधपूर्ण यह सामग्री देते है "न मे मृत्युः कुतो भोतिर्न मे व्याधिः कुतो व्यथा। नाह बालो न वृद्धोऽह न युवैतानि पुद्गले।" -इष्टोपदेश २६ जब मेरी मृत्यु नही है, तब भय किस बातका? जब मेरा आत्मा रोगमुक्त है तब व्यथा कैसी? अरे, न तो मै बालक हूँ, न वृद्ध हूँ और न तरुण ही हूँ-यह सब पुद्गलका खेल है। इस प्रसगमे अमृतचन्द्रसुरिके ये शब्द बडे मार्मिक तथा उद्बोधक है १ समाधिशतक।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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