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________________ आत्म-जागरणके पथपर ७७ "जिन मुमुक्षुओका अन्त करण ससार, शरीर तथा भोगोसे निस्पृह है उन्हे यह सिद्धान्त निश्चित करना चाहिये कि 'मैं' सर्वदा शुद्ध, चैतन्यमय, अखण्ड, उत्कृष्ट ज्ञान-ज्योति-स्वरूप हूँ। जो रागादिरूप भिन्नलक्षणवाले भाव पाये जाते है, उन रूप 'मैं' नही हूँ, कारण वे सभी मेरेसे भिन्न द्रव्य रूप है।" ___ ऐसे मुमुक्षु की चित्तवृत्तिपर बनारसीदासजी इस प्रकार प्रकाश डालते है - "जिन्हके सुमति जागो, भोगसो भए विरागि, परसगत्यागि जे पुरुष त्रिभुवनमें रागादिक भावनिसों जिन्हको रहन न्यारी, कबहूँ मगन है न रहे धाम धनमें । जे सदैव आपके विचारे सरवांग शुद्ध जिन्हके विकलता न व्यापे कछ मनम्। सेई मोक्षमारगके साधक कहावें जीव,भावे रहो मन्दिरमें भावे रहो वनमें ॥" इस आत्म-विद्यामे यह अलौकिकता है कि यह विपत्तिको दुर्दैवकी कृपा मानती है कि यह आत्मा पूर्ववद्ध कर्मका कर्जा विपत्तिके वहाने चुकाकर ऋणमुक्त हो जाता है। ____ मर्यादापुरुषोत्तम महाराज रामचन्द्र प्रभातमे साकेत-सामाज्यके अधिपति वननेका स्वप्न देख रहे थे, कि दुर्दैवने कैकेयीकी वाणीके रूपमे अन्तराय आ पटका और रामको वनकी ओर जाना पड़ा। इस भीषण परिवर्तनको देख आत्मज्ञ राम सत्पथसे विचलित नहीं होते। चित्तमे प्रसादको स्थान देते हुए वे अपने इष्टजनोको कितने मधुर शब्दोमै अपने वनवासके बारेमे सुनाते है "राज्ञा मे दण्डकारण्ये राज्यं दत्त शुभेऽखिलम्।" १ "सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्तचरितैर्मोक्षाथिभिः सेव्यताम् । शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम् ॥ एते ये तु समुल्लसन्ति विविधा भावाः पृथग्लक्षणाः। तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समना अपि॥"
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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