SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्म-जागरणके पथपर ७५ कथा सुलभ मालूम पडती है, किन्तु कर्मपुञ्जसे विभक्त अपने आत्मा का एकपना न तो कभी सुना, न परिचयमे आया और न अनुभवमे आया, इसलिए यह अपना होते हुए भी कठिन मालूम पड़ता है। कर्म-भार हलका होने पर, वीतराग वाणीका परिशीलन करने पर और सतजनोके समागमसे साधकको वह विमल दृष्टि प्राप्त होती है, जिसके सद्भावमें नारकी जीव भी अनन्त दुखोके वीचमे रहते हुए विलक्षण आत्मीक शान्तिके कारण अपनेको कृतार्थ-सा मानता है और जिसके अभावमे अवर्णनीय लौकिक सुखोके सिंघुमे निमग्न रहते हुए भी देवेन्द्र अथवा चक्रवर्ती भी वास्तविक शाति-लाभसे वचित रहते है। पंचाध्यायीकार कितने वलके साथ यह बताते है "शकचक्रधरादीनां केवलं पुण्यशालिनाम् । तृष्णाबीजं रतिस्तेषा सुखावाप्ति. कुतस्तनी।" ऐसे साधककी मनोवृत्तिके विषयमे अध्यात्म साधनाके पथमे प्रवृत्त साधकवर बनारसीदासजी अपने नाटक समयसारमें लिखते है जैसे निसि वासर कमल रहे पंक ही मैं, पंकज कहावै प न वाके ढिग पंक है। जैसे मंत्रवादी विषधर सौं गहावै गात, मत्रकी संगति वाके बिना विषडंक है। जैसे जीभ गहै चिकनाई रहे रूखे अंग, पानीमें कनक जैसे कायसौं अटक है। तैसे ज्ञानवंत नाना भाति करतूति ठान, किरिया ते भिन्न माने यात निकलंक है। योगविद्याकी अनुभूति करनेवाले योगिराज पूज्यपाद आत्मवोधको भव-व्याधियोको उन्मूलन करनेमे समर्थ औषध वतलाते है "मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्ततः त्यक्त्वनां प्रविशेदन्तर्बहिरव्याप तेन्द्रियः ॥ १५ ॥" १ समाधिशतक।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy