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तृतीय अध्याय ॥
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देशों के समान इस देश में भी अपनी सन्तति की ओर पूरा २ ध्यान दिया जाता था, इसी लिये यहां भी पूर्वसमय में बहुत से नामी पुरुष हो गये हैं, परन्तु वर्त्तमान में तो इस देश की दशा उक्त विषय में अत्यन्त शोचनीय है क्योंकि— के- अन्य देशों में तो कुछ न कुछ
के पढने से उन की मनोवृत्ति अत्यन्त चञ्चल; रसिक और विषयविकारों से युक्त हो जाती है, फिर देखिये ! कि, द्रव्य पात्रों के घरो में नौकर चाकर आदि प्रायः शुद्र जाति के तथा कुव्यसनी ( बुरी आदतवाले ) रहा करते हैं - वे लोग अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये चालको को उसी रास्ते पर डालते हैं कि, जिस से उनकी स्वार्थसिद्धि होती है, बालकों को विनय आदि की शिक्षा तो दूर रही किन्तु इस के वदले वे लोग भी मामा चाचा और हरेक पुरुष को गाली देना सिखलाते, हैं और उन बालकों के माता पिता ऐसे भोले होते हैं कि, वे इन्हीं वातों से वडे प्रसन्न होते हैं और उन्हें प्रसन्न होना ही चाहिये, जब कि वे स्वय शिक्षा और सदाचार से हीन हैं, इस प्रकार से कुसंगति के कारण वे बालक विलकुल विगड जाते हैं उन (बालको) को विद्वान; सदाचारी; धर्मात्मा और सुयोग्य पुरुषों के पास बैठना भी नहीं सुहाना है, किन्तु उन्हें तो नाचरंग, उत्तम शरीर शृगार; वेश्या आदि का नृत्य, उस की तीखी चितवन; भांग आदि नशोका पीना; नाटक व स्वाग आदि का देखना; उपहास; ठट्ठा और गाली आदि कुत्सित शब्दों का मुख से निकालना और सुनना आदि ही अच्छा लगता है, दुष्ट नौकरो के सहवास से उन चालको में ऐसी २ बुरी आदतें पड जाती है कि-जिन के लिखने मे लेखनी को भी लज्जा आती है, यह तो विनय और सदाचार की दशा है. अब उनकी शिक्षा के प्रबंध को सुनिये -इन का पढना केवल सौ पहाडे और हिसाब किताब मात्र है, सो भी अन्य लोग पढाते है, माता पिता वह भी नहीं पढ़ा सकते है, अब पढानेवालों की दशा सुनिये कि पढानेवाले भी उक्त हिसाव किताव और पहाड़ों के सिवाय कुछ भी नहीं जानते है, उनको यह भी नहीं मालुम है कि-व्याकरण, नीति और धर्मशास्त्र आदि किस चिडिया का नाम है, अव जो व्याकरणाचार्य कहलाते हैं जरा उन की भी दशा सुन लीजिये उन्हों ने तो व्याकरण की जो रेड मारी है - उसके विषय मे तो लिखते हुए लज्जा आती है-प्रथम तो वे पाणिनीय आदि व्याकरणों का नाम तक नहीं जानते हैं, केवल 'सिद्धो वर्णसमाम्नायः' की प्रथम सन्धिमात्र पढते है, परन्तु वह भी महाशुद्ध जानते और सिखाते है ( वे जो प्रथम सन्धिको अशुद्ध जानते और सिखाते हैं वह इसी अन्यके प्रथमाध्याय में लिखी गई है वहा देखकर बुद्धिमान् और विद्वान् पुरुष समझ सकते हैं कि - प्रथम सन्धि को उन्हों ने कैसा विगाढ रक्खा है) उन पढानेवालों ने अपने स्वार्थ के लिये ( कि हमारी पोल
न खुल जावे) भोले प्राणियो को इस प्रकार बहका ( भरमा ) दिया है कि वालकों को चाणक्य नीति
हो जाता है, बस यही बात
आदि ग्रन्थ नहीं पढाने चाहियें क्योंकि इनके पटते से बालक पागल सव के दिलों में घुस गई, कहिये पाठकगण । जहां विद्या के पढने से बालकों का पागल हो जाना समझते हैं उस देश के लिये हम क्या कहें ? किसी कविने सत्य कहा है कि- "अविद्या सर्व प्रकार की घट घट माहि अढी । को काको समुझावही कूपहिं भाग पडी" ॥ १ ॥ अर्थात् सव प्रकार की अविद्या जब प्रत्येक पुरुष के दिल मे घुस रही है तो कौन किस को समझा सकता है क्योंकि घट २ में अविद्या का घुस जाना तो कुए में पडी हुई भाग के समान है, (जिसे पीकर मानो सच ही वावले बन रहे हैं), अन्त अव हमें यही कहना है कि यदि मारवाडी भाई ऐसे प्रकाश के समय में भी शीघ्र नहीं जागेंगे तो कालान्तर मे इस का परिणाम बहुत ही भयानक हो गा, इस लिये मारवाडी भाइयो को अब भी सोते नहीं रहता चाहिये किन्तु शीघ्र ही उठ कर अपने को और अपने हृदय के टुकडे प्यारे बालकों को सँभालना चाहिये क्योकि यही उन के लिये श्रेयस्कर है ॥