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जैन॑सम्प्रदायशिक्षा ॥
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पुरुष हो गये हैं, जिन में से कुछ सज्जनों के नाम यहां पर लिखे विना लेखनी आगे नहीं बढ़ती है-इस लिये कुछ नामों का निदर्शन करना ही पडता है, देखिये - पूर्वकाल में लखनऊनिवासी लाला गिरधारीलालजी, तथा मकसूदाबादनिवासी ईश्वरदासजी और राय वहादुर मेघराजजी कोठारी वडे नामी पुरुष हुए हैं और इन तीनों महोदयों का तो अभी थोडे दिन पहले स्वर्गवास हुआ है, इन सज्जनों में एक बडी भारी विशेषता यह थी कि इन को जैन सिद्धान्त गुरुगम शैली से पूर्णतया अभ्यस्त था जो कि इस समय जैन गृहस्थों में तो क्या किन्तु उपदेशको मे भी दो ही चार में देखा जाता है, इसी प्रकार मारवाड देशस्थ, ' देशनोक के निवासी-सेठ श्री मगन मलजी चावक भी परमकीर्तिमान् तथा धर्मात्मा हो गये हैं । किन्तु यह तो हम बडे हर्ष के साथ लिख सकते हैं कि हमारे जैन मतानुयायी अनेक स्थानों के रहनेवाले अनेक सुजन तो उत्तम शिक्षाको प्राप्तकर सदाचार में स्थित रहकर अपने नाम और कीर्ति को अचल कर गये है जैसे कि - रायपुर में गम्भीर मल जी डागा, नागपुर में हीरालाल जी जौहरी, राजनांदग्राम में आसकरणजी राज्यदीवान आदि अनेक श्रावक कुछ दिन पहिले विद्यमान थे तथा कुछ सुजन अब भी अनेक स्थानों में विद्यमान हैं परन्तु प्रथ के बढ़ जाने के भय से उन महोदयों के नाम अधिक नहीं लिख सकते हैं, इन महोदयों ने जो कुछ नामः कीर्ति और यश पाया वह सब इन के सुयोग्य माता पिता की श्रेष्ठ शिक्षा का ही प्रताप समझना चाहिये, देखिये वर्त्तमान में जैनसंघ के अन्दर - जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेंस के जन्मदाता श्रीयुत गुलाबचन्दजी ढड्डा एम. ए. आदि तथा अन्य मत मे भी इस समय पारसी दादाभाई नौरोजी, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपतराय, वाबु सुरेंद्रनाथ, गोखले और मदनमोहन जी मालवी आदि कई सुजन कैसे २ विद्वान् परोपकारी और देशहितैषी पुरुष हैं - जिन को तमाम आर्यावर्तनिवासी जन भी मिल कर यदि करोडों धन्यवाद दें तो भी थोडा है, ये सब महोदय ऐसे परम सुयोग्य कैसे हो गये, इस प्रश्न का उत्तर केवल वही है कि इन के सुयोग्य माता पिता की श्रेष्ठ शिक्षा का ही वह प्रताप है कि- जिस से ये सुयोग्य और परम कीर्त्तिमान् हो गये हैं, इन महोदयों ने कई बार अपने भाषणों में भी उक्त विष का कथन किया है कि-सन्तान की बाल्यावस्था पर माता पिता को पूरा २ ध्यान देना चाहिये अर्थात् नियमानुसार बालक का पालन पोषण करना चाहिये तथा उस को उत्तम शिक्षा देनी चाहिये इत्यादि, जो लोग अखबारों को पढते हैं उन को यह बात अच्छे प्रकार से विदित है, परन्तु वड़े शोक का विषय तो यह है कि बहुत से लोग ऐसे शिक्षाहीन और प्रमादयुक्त है कि वे अखवारो को भी नहीं पढते हैं जब यह दशा है तो भला उन को सत्पुरुषो के भाषणों का विषय कैसे ज्ञात होसकता है ? वास्तव में ऐसे लोगों को मनुष्य नहीं किन्तु पशुवत् समझना चाहिये कि जो ऐसे २ देशहितैषी महोदयों के सदाचार और योग्यता को तो क्या किन्तु उन के नाम से भी अनभिन्न हैं । कहिये इस से बढकर और अन्धेर क्या हो गा ? इस समय जब हम दृष्टि उठा कर अन्य देशों की तरफ देखते हैं तो ज्ञात होता है कि अन्य देशों में कुछ न कुछ बालकों की रक्षा और शिक्षा के लिये आन्दोलन हो कर यथाशक्ति उपाय किया जारहा है परन्तु मारवाड़ देश में तो इस का नाम तक नहीं सुनाई देता है, ऊपर जो प्रणाली ( पूर्वकाल कि पूर्व काल मे इस प्रकार से बालकों की रक्षा और शिक्षा की बिलकुल ही बदल गई, वालकों की रक्षा और शिक्षा तो दशा हो रही है कि- जव बालक चार पाच वर्ष का होता है, अपने पुत्र से कहती है कि, "अरे बनिया' थारे वींदणी गोरी वास्ते गोरी दुलहिन लावें या काली लावें ) इत्यादि, इसी प्रकार से वाप आदि बड़े लोंगों को गाली देना' मारना और बाल नोचना आदि अनेक कुत्सित शिक्षा ये बालकों को दी जाती है तथा कुछ बड़े होने पर कुसंग दोष के कारण उन्हें ऐसी पुस्तको के पढ़ने का अवसर दिया जाता है कि, जिन
मारवाड़ देश की ) लिख चुके हैं जाती थी वह अब मारवाड देश में दूर रही, मारवाड़ देश में तो यह तब माता अति लाड और प्रेम
लावों के काली" ( अरे बनिये। तेरे