________________
तृतीय अध्याय ॥
१२३ को कृतार्थ मान रहे हैं तथा उन्हीं के गोत्र में उत्पन्न होने का हम सब अभिमान कर रहे हैं, परन्तु जबसे इस पवित्र आर्यभूमि में अविद्याने अपना घर बनाया तथा माता पिता का ध्यान अपनी सन्तति के पालन पोषण के नियमों से हीन हुआ अर्थात् माता पिता सन्तति के पालन पोषण आदि के नियमों से अनभिज्ञ हुए तब ही से आर्य जाति अत्यन्त अधोगति को पहुंचगई तथा इस पवित्र देश की वह दशा हो गई और हो रही है कि जिसका वर्णन करने में अश्रुधारा वहने लगती है और लेखनी आगे बढ़ना नहीं चाहती है, यद्यपि अब कुछ लोगों का ध्यान इस ओर हुआ है और होता जाता है जिससे इस देश में भी कहीं २ कुछ सुधार हुआ है और होता जाता है, इस से कुछ सन्तोष होता है क्योंकिइस आर्यावर्तान्तर्गत . कई देशों और नगरों में इस का कुछ आन्दोलन हुआ है तथा सुधार के लिये भी यथाशक्य प्रयत्न किया जा रहा है, परन्तु हम को इस बात का बड़ा मारी शोक है कि इस मारवाड़ देश में हमारे भाइयों का ध्यान अपनी सन्तति के सुधारका अभीतक तनिक भी नही उत्पन्न हुआ है और मारवाड़ी भाई अभीतक गहरी नींद में पड़े सो रहे है, यद्यपि यह हम मुक्तकण्ठसे कह सकते है कि पूर्व समय में अन्य
१-हमने अपने परम पूज्य खर्गवासी गुरु जी महाराज श्री विशनचन्दजी मुनि के श्रीमुख से कई बार इस बात को सुनाश कि-पूर्व समय में मारवाड देश में भी लोगों का ध्यान सन्तान के सुधार की ओर पूरा था, गुरुजी महाराज कहा करते थे कि 'हम ने देखा है कि-मारवाड के अन्दर कुछ वर्ष पहिले धनान्य पुरुषों मे सन्तानों के पालन और उनकी शिक्षा का क्रम इस समय की अपेक्षा लाख दर्जे अच्छा था अर्थात् उन के यहा सन्तानो के अगरक्षक प्रायः कुलीन और वृद्ध राजपुत्र रहते थे तथा सुशील गृहस्थों की स्त्रिया उन के घर के काम काज के लीये नौकर रहती थीं, उन धनान्य पुरुषो की नियां नित्य धर्मोपदेश सुना करती थीं, उन के यहाँ जब सन्तति होती थी तब उस का पालन अच्छे प्रकार से नियमानुसार स्त्रियां करती थी तथा उन पालको को उक कुलीन राजपुत्र ही खिलाते थे, क्योकि "विनयो राजपुत्रेभ्यः', यह नीति का वाक्य है-अर्थात् राजपुत्रो से विनय का ग्रहण करना चाहिये, इस कथन के अनुकूल व्यवहार करने से ही उन की कुलीनता सिद्ध होती है अर्थात् बालको को विनय और नमस्कारादि वे राजपुत्र ही सिखलाया करते थे; तथा जब बालक पाच वर्षका होता था सब उस को यति वा अन्य किसी पण्डित के पास विद्याभ्यास करने के लिये भेजना शुरू करते थे, क्योकि यति वा पण्डितो ने बालको को पढ़ाने की तथा सदाचार सिखलाने की रीति सक्षेप से अच्छी नियमित कर (वाघ) रखी थी अर्थात् पहाड़ों से लेकर सव हिसाव किताब सामायिक प्रतिक्रमण आदि धर्मकृत्य और व्याकरण विषयक प्रथमसन्धि (जो कि इसी ग्रन्थ में हमने शुद्ध लिखी है) और चाणक्य नीति आदि आवश्यक ग्रन्थ वे बालको को अर्थ सहित अच्छे प्रकार से सिखला दिया करते थे, तथा उक अन्थों का ठीक वोध हो जाने से वे गृहस्थों के सन्तान हिसाब में; धर्मकृत्य में और नीति ज्ञान आदि विषयों में पके हो जाते थे, यह तो सर्वसाधारण के लिये उन विद्वानों ने क्रम बांध रकूखाथा किन्तु जिस बालक की बुद्धि को वे (विद्वान्) अच्छी देखते थे तथा बालक के माता पिता की इच्छा विशेष पढाने के लिये होती थी तो वे (विद्वान् ) उस बालक को तो सर्व विषयों में पूरी शिक्षा देकर पूर्ण विद्वान कर देते थे, इत्यादि, पाठक गण। विचार की जिये कि इस मारवाड देश में पूर्व काल में साधारण शिक्षा का कैसा अच्छा कम वेंधा हुआ था, और केवल यही कारण है कि उक शिक्षाक्रम के प्रभाव से पूर्वकाल में इस मारवाड़ देश में भी अच्छे २ नामी और धर्मात्मा