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________________ ११२ जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ पेट में बालक का फिरना ॥ पेट में बालक का फिरना चौथे वा पांचवें महीने में होता है, किन्तु इस से पूर्व नहीं होता है क्योंकि गर्मस्य सन्तान के बड़े होने से उस की गति ( इधर उधर हिलना आदि चेष्टा) मालम होती है किन्तु जहांतक गर्भस्थ सन्तान छोटा रहता है वहांतक गति नहीं मालूम होती है। __ यद्यपि ऊपर कहे हुए सब चिन्ह तो स्त्री से पूंछने से तथा जांच करने से मालम हो सकते हैं परन्तु गर्भ स्थिति के कारण पेट का बढना तो प्रत्यक्ष ही मालूम हो जाता है, किन्तु प्रथम दो वा तीन महीनेतक तो पेट का बढ़ना भी स्पष्ट रीति से मालूम नहीं होता है परन्तु तीन महीने के पीछे तो पेट का बढ़ना साफ तौर से मालूम होने लगता है अर्थात् ज्यों २ गर्भस्थ बालक बड़ा होता जाता है त्यों २ पेट भी बढता जाता है, परन्तु यह भी सरण रहना चाहिये कि केवल पेट के बढ़ने से ही गर्मस्थिति का निग्धय नहीं कर लेना चाहिये किन्तु इसके साथ में ऊपर कहे हुए चिन्ह भी देखने चाहिये क्योंकि उदर की वृद्धि तो तापतिल्ली और जलोदर आदि कई एक रोगों से भी हो जाती है । गर्मिणी स्त्री के दिन पूरे होने के समय में होनेवाले चिन्हें । इस समय में बहुमूत्रता होती है अर्थात् वारंवार पेशाव करने के लिये जाना पड़ता है परन्तु उस में दर्द नहीं होता है, किसी २ स्त्री के गर्भ स्थिति की प्रारंभिक दशा में भी बहुमूत्रता हो जाती है परन्तु इस दशा में उस के कुछ पीड़ा हुआ करती है, वारंवार पेशाव लगने का कारण यह है कि गर्भाशय और मूत्राशय ये दोनों बहुत समीप है इसलिये गर्भाशय के बढने से मूत्राशय पर दवाव पड़ता है उस दवाव के पड़ने से वारंवार पेशाव लगता है, परन्तु यह ( वारंवार पेशाव का लगाना ) भी कुछ समय के पश्चात् आप ही बन्द हो जाता है, इस के सिवाय गर्मिणी स्त्री का चेहरा प्रफुल्लित होता है परन्तु बहुत सी स्त्रियां प्रायः दुर्बल भी हो जाया करती हैं, इत्यादि ॥ प्रत्येक मास में गर्भस्थिति की दशा तथा उसकी संभाल ॥ स्थानांग सूत्रके पांचवें स्थान में कामसेवन का पांच प्रकार से होना कहा है. जिस का सेक्षेप से वर्णन यह है: १-पुरुष वा स्त्री अपने मन में काम भोग की इच्छा करे, इस का नाम मनःपरिचारण है। २-जिन शब्दों से कामविकार जागृत हो ऐसे शब्दों के द्वारा परस्पर वार्तालाप (सम्भाषण) करना, इस का नाम शब्दपरिचारण है ॥ ३-परस्पर में राग जागृत हो ऐसी दृष्टि से एक दूसरे को देखना, इस का नाम रूपपरिचारण है ।।
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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