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________________ तृतीय अध्याय ॥ ११३ ४ - आलिङ्गन आदि के द्वारा केवल स्पर्श मात्रसे काम सेवन करना, इस का नाम स्पर्शपरिचारण है ॥ ! ५ - एक शय्या (चार पाई वा विस्तर) में सम्पूर्ण अङ्गों से अङ्गों को मिला कर काम भोग करना, इस का नाम कायपरिचारणा है | इन पांचों काम सेवन की विधियों मेंसे पांचवी विधि के अनुसार जब काम सेवन किया जाता है तब स्त्री के गर्भ की स्थिति होती है, गर्म की स्थिति का स्थान एक कमलाकार नाड़ी विशेष है अर्थात् स्त्री की नाभि के नीचे दो नाड़ी एक दूसरी से सम्बद्ध हो कर कमल पुष्पके समान बनी हुई अधोमुख कमलाकार है, इसी में गर्म की स्थिति होती है, इस नाड़ी के नीचे आमकी मांजर (मञ्जरी) के समान एक मांस का मांजर है तथा उस मांजर के नीचे योनि है, प्रतिमास जो स्त्री को ऋतुधर्म होता है वह इसी मांजर से लोहू गिर कर योनि के मार्ग से बाहर आता है । पहिले कह चुके हैं कि ऋतुखान के पीछे चौथे दिन से लेकर बारह दिन तक गर्म स्थिति का काल है, इस विषय में यह भी जान लेना आवश्यक है कि कायपरिचारणा ( कामसेवन की पांचवीं विधि ) के द्वारा काम भोग करने के पीछे स्खलित हुए वीर्य और शोणित में कच्ची चौवीस घड़ी (९ घंटे तथा ३६ मिनट ) तक गर्मस्थिति की शक्ति रहती है, इस के पीछे वह शक्ति नही रहती है किन्तु फिर तो वह शक्ति तब ही उत्पन्न होगी कि जब पुनः दूसरी बार सम्भोग किया जायगा सम्भोग करने के पीछे गर्म में लड़के वा लड़की ( जो उत्पन्न होने को हो ) का 'जीव शीघ्र ही आ जाता है, परन्तु इस विषय में जो लोग ऐसा मानते हैं कि गर्भस्थिति के एक महीने वा दो महीने के पीछे जीव आता है वह उन का भ्रममात्र है किन्तु जीव तो चौवीस घड़ी के भीतर २ ही आ जाता है तथा जीव गर्ममें आते ही पिता के बीर्य और माता के रुधिर का आहार लेकर अपने सूक्ष्म शरीर को ( जिसे पूर्व भव से साथ लाया है तथा जिस के साथ में अनेक प्रकार की कर्म प्रकृति भी हैं) गर्भाशय में डाल कर ! उसी के द्वारा स्थूल शरीर की रचना का प्रारंभ करता है, क्योंकि जब जीव एक गति को : छोड़कर दूसरी गति में आता है तब तैजस तथा कार्मणरूप सूक्ष्म शरीर उस के साथही में रहता है तथा पुण्य और पाप आदि कर्म भी उसी सूक्ष्म शरीर के साथ में लगे रहते हैं, १–जैसा कि वैद्यक आदि प्रन्थोंमें लिखा है कि-शुक्रार्तवसमा छेपो यदैव खल जायते ॥ जीवस्तदैव विशति युक्तशुक्रार्तवान्तरम् ॥ १॥ सूर्याशोः सूर्यमणित उभयस्माद्युताद्यथा ॥ वहिस्सञ्जायते जीवस्तथा शुक्राचाद्युतात् ॥ २ ॥ अर्थात् जब वीर्य और आर्तव का संयोग होता है-उसी समय जीव उन के साथ उस में प्रवेश करता है ॥ १ ॥ जैसे- सूर्य की किरण और सूर्यमणि के संयोग से अभि प्रकट होती है उसी प्रकार से शुक्र शोणित के सम्बध से जीव शीघ्र ही उदर में प्रकट हो जाता है ॥ २ ॥ १५
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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