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________________ तृतीय अध्याय ॥ अपने व्रत और नियमों को पालते रहना चाहिये तथा पति के शुम का चिन्तवन करना चाहिये, पति की उपस्थिति में उस की प्रसन्नता के लिये जैसे पूर्व वस्त्र और अलंकार आदि का उपभोग करती थी उस प्रकार पति की अनुपस्थिति में उनका उपभोग नहीं करना चाहिये, क्योंकि उत्तम वस्त्र और अलंकार आदि तो केवल पति के चित्त को रंजन करने के लिये ही पहिने जाते हैं जब पति तो पर देश में है तो फिर किस का रक्षन करने के लिये वस्त्र और अलंकार आदि का श्रृंगार करे ! अर्थात् उस दशा में श्रृंगार आदि नहीं करना चाहिये, क्योंकि पति के पर देश में होने पर भी शृंगार आदि करना साध्वी स्त्रियों का धर्म नहीं है, इस शिक्षा का हेतु यह है कि यह स्वाभाविक नियम है कि सांसारिक उपभोगों से इन्द्रियां तथा मन की वृत्ति चलायमान होती है इस लिये इन्द्रियों को तथा मन की वृत्ति को वश में रखने के लिये उक्त नियमों का पालन अति लाम दायक है, इसलिये पति के परदेश में होने पर सांसारिक वैभव ( ऐश्वर्य ) के पदार्थों से विरक्त रहना चाहिये, सादी पोशाक पहरना और सौभाग्यदर्शक चिह अर्थात् हाथ में कंकण और कपालमें कुंकुम का टीका आदि ही रखना चाहिये। पति को चाहिये कि-पर देश जाते समय अपनी स्त्री के भरण पोषण आदि सव बातों का ठीक प्रबंध करके जावे, परन्तु यदि किसी कारण से पति सब बातों का प्रबंध न कर गया होतो स्त्री को उचित है कि-पति के वापिस आने तक कोई निर्दोष (दोषरहित ) जीविका करके अपना निर्वाह करे, जिनपदार्थो को पति ने घर में रखने और संभालनेको सौपा हो उन को सम्भालकर रक्खे, आमदनी से अधिक खर्च न करे, लोगों की देखा देखी ऋण कर के कोई भी कार्य न करे, सासु श्वशुर तथा संग खेही आदि के साथ का व्यवहार तथा सब संसार का कार्य उसी प्रकार करती रहे जैसा कि-पतिकी विद्यमानता में करती थी, पति की आयु की रक्षाके लिये कोई भी निन्दित कार्य न करे, खान करे वह भी शरीर में तेल लगा कर अथवा और कोई सुगन्धित पदार्थ लगा के न करे किन्तु केवल जल से ही करे, चन्दन और पुष्प आदि धारण न करे, नाटक, खेल और खांग आदि में न जावे और न खयं करे, ऊंचे स्वर से हास्य न करे, अन्य स्त्री अथवा पुरुष की चेष्टा को न देखे, जिस से इन्द्रियों में अथवा मनमें विकार उत्पन्न हो ऐसा भाषण न करे और न ऐसे भाषण का श्रवण करे, इधर उधर व्यर्थ में न भटके, सासु और ननद आदि प्रिय जनों के साथ के विना पराये घर न जावे, केवल एक वस्त्र (घोती अर्थात् साड़ी) पहिन के न फिरे, अन्य पुरुष के साथ अपने शरीर का संघट्ट हो जावे ऐसा वाव न करे, लज्जा को न छोड़े, मेला आदि में (जहां बहुत से मनुष्य इकट्ठे हो वहां ) न जावे, देवदर्शन के बहाने इधर उधर प्रमण न करे किन्तु घर में बैठके परमेश्वर का मरण और भक्ति करने में प्रीतिरक्खे, अपने शील तथा सब्यवहार को
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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