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जैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ धन और धान्य का सञ्चय करने के समय, विद्या सीखने के समय, भोजन करने के समय और देन लेन करने के समय मनुष्य को लज्जा अवश्य त्याग देनी चाहिये ॥१०५॥
सन्तोषामृत तृप्त को, होत जु शान्ती सुक्ख ॥
सो धनलोभी को कहां, इत उत धावत दुक्ख ॥ १०६ ॥ सन्तोष रूप अमृत से तृप्त हुए पुरुष को जो शान्ति और सुख होता है वह धन के लोभी को कहां से हो सकता है किन्तु धन के लोभी को तो लोभवश इधर उधर दौड़ने से दुःख ही होता है ॥ १०६ ॥
तीन थान सन्तोष कर, धन भोजन अरु दार ॥
तीन सँतोष न कीजिये, दान पठन तपचार ॥ १०७॥
मनुष्य को तीन स्थानों में सन्तोष रखना चाहिये-अपनी स्त्री में, भोजन में और धन , में, किन्तु तीन स्थानों में सन्तोष नहीं रखना चाहिये-सुपात्रों को दान देने में, विद्याध्ययन करने में और तप करने में ॥ १०७ ।।
पग न लगावे अग्नि के, गुरु ब्राह्मण अरु गाय ॥
और कुमारी बाल शिशु, विदजन चित लाय ॥ १०८॥ अमि, गुरु, बामण, गाय, कुमारी कन्या, छोटा बालक और विद्यावान् , इन के जान बूझकर पैर नहीं लगाना चाहिये ॥ १०८ ॥
हाथी हाथ हजार तज, घोड़ा से शत भाग ॥
शूगि पशुन दश हाथ तज, दुर्जन ग्रामहि त्याग ॥ १०९॥ हाथी से हजार हाथ, घोड़े से सौ हाथ, बैल और गाय आदि सींग वाले जानवरों से दश हाथ दूर रहना चाहिये तथा दुष्ट पुरुष जहां रहता हो उस ग्राम को ही छोड़ देना चाहिये ॥ १०९॥
लोभिहिँ धन से वश कर, अभिमानिहिँ कर जोर ॥
मूर्ख चित्त अनुवृत्ति करि, पण्डित सत के जोर ॥ ११०॥ लोमी को धन से, अमिमानी को हाथ जोड़कर, मूर्ख को उस के कथन के अनुसार चलकर और पण्डित पुरुष को यथार्थता (सच्चाई ) से वश में करना चाहिये ॥ ११० ॥
१-क्योंकि इन कामों में लज्जा का त्याग न करने से हानि होती है तथा पीछे पछताना पडता है ॥ २-क्योंकि दान अध्ययन और तप में सन्तोष रखने से अर्थात् थोड़े ही के द्वारा अपने को कृतार्थ समझ लेने से मनुष्य आगामी मे अपनी उन्नति नहीं कर सकता है ॥ ३-इन में से कई तो साधुवृत्ति वाले होने से तथा कई उपकारी होने से पूज्य है अतः इन के निकृष्ट अग पैर के लगाने का निषेध किया गया है । ४-इस बात को अवश्य याद रखना चाहिये अर्थात् मार्ग में हाथी, घोडा, बैल और कट आदि जानवर खडे हों तो उन से दूर होकर निकलना चाहिये क्योंकि यदि इस में प्रमाद (गफलत) किया जावेगा तो कभी न कभी अवश्य दुःख उठाना पड़ेगा।