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द्वितीय अध्याय ॥
बलवन्तहिँ अनुकूल है, निबलहिं है प्रतिकूल ॥
वश कर पुनि निज सम रिपुहिँ शक्ति विनय ही मूल ॥ १११ ॥ बलवान् शत्रु को उस के अनुकूल होकर वश में कैरे, निर्बल शत्रु को उस के प्रतिकूल होकर वश में करे और अपने बराबर के शत्रु को युद्ध करके अथवा विनय करके वश में करे ॥ १११ ॥
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जिन जिन को जो भाव है, तिन तिन को हित जान ॥
मन में घुसि निज वश करै, नहिँ उपाय वस आन ॥ ११२ ॥ जिस २ पुरुष का जो २ भाव है ( जिस जिस पुरुष को जो २ वस्तु अच्छी लगती है ) उस २ पुरुष के उसी २ भाव को तथा हित को जानकर उस के मन में घुम कर उस को वश में करना चाहिये, क्योंकि इस के सिवाय वश में करने का दूसरा कोई उपाय नहीं है ॥ ११२ ॥
अति सरल नहँ इजिये, जाकर वन में देख ॥ सरल तरू तहँ छिदत हैं, बांके तजै विशेख ॥ ११३ ॥
मनुष्य को अत्यन्त सीधा भी नहीं हो जाना चाहिये - किन्तु कुछ टेढापन भी रखना चाहिये, क्योंकि - देखो ! जंगल में सीधे वृक्षों को लोग काट ले जाते हैं और टेढ़ों को नहीं काटते हैं ॥ ११३ ॥
जिनके घर धन तिनहिँ के, मित्ररु बान्धव लोग ॥ जिन के धन सोई पुरुष, जीवन ताको योग ॥ ११४ ॥
जिस के पास धन है उसी के सब मित्र होते हैं, जिस के पास धन है उसी के सब भाई बन्धु होते है, जिस के पास धन हैं वही संसार में मनुष्य गिना जाता है और जिस के पास धन है उसी का संसार में जीना योग्य है ॥ ११४ ॥
मित्र दार सुत सुहृद हू, निरधन को तज देत ॥
पुनि धन लखि आश्रित हुवै, धन बान्धव करि देत ॥ ११५ ॥ जिस के पास धन नही है उस पुरुष को मित्र, स्त्री, पुत्र और भाई बन्धु भी छोड़ देते है और धन होने पर वे ही सब आकर इकट्ठे होकर उस के आश्रित हो जाते हैं, इस से सिद्ध है कि –जगत् में धन ही सब को बान्धव बना देता है ॥ ११५ ॥ अर्थहीन दुःखित पुरुष, अल्प बुद्धि को गेह ॥
तासु क्रिया सब छिन्न हों, ग्रीष्म कुनदि जल जेह ॥
११६ ॥
१ – क्योंकि बलवान् शत्रु प्रतिकूलता से ( लढाई आदि के द्वारा ) वग में नहीं किया जा सकता है ॥ १ - गुसाई तुलसीदास जी ने सत्य कहा है कि- "टेढ जानि शका सब काह । वक्र चन्द्र जिमि प्रसै न राहू " ॥ अर्थात् बेढ़ा जानकर सब भय मानते है-जैसे राहु भी टेढ़े चन्द्रमा को नहीं प्रसता है ॥