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________________ द्वितीय अध्याय ॥ ४७ पुरुष को चाहिये कि-चलते, बैठते, और सोतेसमय में, वर्तन आदि के उठाने और रखने के समय में, खाने और पीने के समय में, रसोई आदि में, लकड़ी, थेपड़ी आदि ईंधन में, तथा तेल, छाछ, घी, दूध, पानी आदि में यथाशक्य (जहां तक हो सके) जीवों की रक्षा करे-किन्तु प्रमादपूर्वक (लापरवाही के साथ ) किसी काम को न करे, दिन में दो वक्त जल को छाने तथा छानने के कपड़े में जो जीव निकलें यदि वे जीव कुएं के हों तो उन को कुएं में ही गिरवा दे तथा बरसाती पानी के हों तो उन को वरसात के पानी में ही गिरवा दे, मुख्यतया व्यापार करनेवाले (हिलने चलनेवाले) जीव तीन प्रकार के होते हैं-जलचर, स्थलचर, और खचर, इन में से पानी में उत्पन्न होनेवाले और चलनेवालों को जलचर कहते है, पृथिवी पर अनेक रीति से उत्पन्न होने वाले और फिरने वाले चीटी से लेकर मनुष्य पर्यन्त जीवों को स्थलचर कहते है तथा आकाश में उड़नेवाले जीवों को खचर (आकाशचारी) कहते है, इन सब जीवों को कदापि सताना नहीं चाहिये, यही दया का खरूप है, इस प्रकार की दया का जिस धर्म में पूर्णतया उपदेश किया गया है तथा तप और शील आदि पूर्व कहे हुए गुणों का वर्णन किया गया हो उसी धर्म को बुद्धिमान् पुरुष को खीकार करना चाहिये--क्योंकि वही धर्म संसार से तारनेवाला हो सकता है क्योंकि-दान, शील, तप और दया से युक्त होने के कारण वही धर्म है दूसरा धर्म नहीं है.॥ ९१॥ राजा के सब भृत्य को, गुण लक्षण निरधार ॥ जिन से शुभ यश ऊपजै, राजसम्पदा भार ॥१२॥ अब राजा के सब नौकर आदि के गुण और लक्षणों को कहते है-जिस से यश की प्राप्ति हो, राज्य और लक्ष्मी की वृद्धि हो तथा प्रजा सुखी हो ।। ९२ ॥ __ आर्य वेद व्याकरण अरु, जप अरु होम सुनिष्ट ॥ ततपर आशिर्वाद नित, राजपुरोहित इष्ट ॥ ९३ ॥ चार आर्य वेद, चार लौकिक वेद, चार उपवेद और व्याकरणादि छः शास्त्र, इन चौदहों विद्याओं का जाननेवाला, जप, पूजा और हवन का करनेवाला तथा आशीर्वाद का बोलनेवाला, ऐसा राजा का पुरोहित होना चाहिये ॥ ९३ ॥ सोरग-भलो न कबहुँ कुराज, मित्र कुमित्र भलो न गिन ॥ असती नारि अकाज, शिष्य कुशिष्य हु कव भलो॥९४॥ १-क्योंकि जो जीव जिस स्थान के होते हैं वे उसी स्थान में पहुचकर सुख पाते हैं । २- धर्म शब्द का अर्थ प्रथम अध्याय के विज्ञप्ति प्रकरण में कर चुके हैं कि दुर्गति से वचाकर यह शुभ स्थानमें धारण करता है इसलिये इसे धर्म कहते हैं ।
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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